उलझन
काव्य साहित्य | कविता स्नेहा15 Feb 2022 (अंक: 199, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
उस रोज़ मैंने उससे कुछ ज़्यादा बातें कर ली,
बातों-बातों में उसने कुछ ऐसी बात बोल दी,
मैं उलझ सी गई,
क्या यह वही था जिससे मैं रोज़ बातें करती?
पता नहीं बहुत उलझनें हैं मन में!
ये मेरी ग़लती है या फिर उसकी,
हाँ! शायद यह मेरी ही ग़लती थी,
तभी तो वह मुझसे बात करने की सीमा ही भूल गया।
हाँ! शायद मैंने ही उसे इतना कहने की इजाज़त दे रखी,
तभी तो उसने हदें ही पार कर दीं।
अब उलझन ये है कि
मैं चुनूँ उसे जिसने कभी मुझे झुकना न सिखाया,
या उसे, जिससे अच्छी दोस्ती होते होते रह गई!
मैंने कभी सोचा भी न था मुझे इस दौर से गुज़रना होगा,
दोनों ख़ास लोगों में से किसी एक को चुनना होगा!
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