अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

वीरों की विजय का विजय दिवस

रक्त, भक्त और वक़्त की कहानी
एक दास्तान हो गई आज पचास वर्ष पुरानी
 
एक दास्तान जो सालों पुरानी है
किसी ने सुनी तो
किसी ने अब तक ना जानी है
 
वो गुरुवार का दिन था
जब देशभक्ति में हर भक्त लीन था
 
बात ज़रा ज़्यादा पुरानी है
पर सुनना ध्यान लगा के
ये वीरों की कहानी है
 
उस दिन की वो हवा
भी तूफ़ानी थी
एक बार फिर
धर्म के विजय का 
एहसास दिलाने वाली थी
 
कई वीरों ने अमर फिर अपना 
नाम किया था
मिट्टी के कण-कण में अपना
एहसास दिया था
 
विजय दिवस के उल्लास में
छिपा जो ग़म का मेघ है
आज वह मेघ बरसाना है
वीरों की विजय का 
विजय दिवस मनाना है
 
ढाका की उस भूमि पर तेरह दिन का
तप किया था
हमारे वीर जवानों ने
वीरत्व का प्रण लिया था
 
उन वीर लहू के क़तरे-क़तरे से
सबको रुबरू करवाना है
वीरों की विजय का 
विजय दिवस मनाना है
 
कहानी इतनी सी नहीं
ये तो बस संक्षेप था
देखो मुड़ कर बन्दे तुम
उनके रक्त में क्या वेग था
 
धधक-धधक कर आग जली थी
जब माँ के सीने में
तब हर लाल ने शस्त्र उठाया
क्योंकि नहीं सुख
डर कर जीवन जीने में
 
आज उस निडर की निडरता
को शब्दों में बताना है 
वीरों की विजय का 
विजय दिवस मनाना है
 
यूँ चीते सी छाती ले
अश्व वेग से दौड़ गए
दुश्मन की धरती पर जा कर
क्षण भर में उनके
प्राण और होश सब हरे
 
शत्रु की क्यों बात करें
आज तो वीरों का दिन है
नहीं सोचते किसने क्या किया
आज तो वक़्त, हवा, फ़िज़ा और घटा
सब वीरत्व में लीन है
 
आज वीरों की वीरता का सकल 
चित्र सबको दिखाना है
वीरों की विजय का  
विजय दिवस मनाना है। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं