विकलांग विमर्श की कहानियाँ: समीक्षा
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा पूजा अग्निहोत्री15 Nov 2025 (अंक: 288, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
पुस्तक, “लहरों के पूर्वरंग”
संपादक-सन्दीप तोमर
प्रकाशक: वी एल मिडिया, दिल्ली
प्रकाशन वर्ष: 2024
मूल्य: ₹400
समकालीन हिंदी साहित्य में ‘विकलांग विमर्श’ अपेक्षाकृत नया लेकिन बेहद महत्त्वपूर्ण विमर्श है। जिस प्रकार स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श ने साहित्य में उपेक्षित वर्गों की आवाज़ को सामने लाने का कार्य किया, उसी प्रकार यह संकलन शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से भिन्न-क्षमतावान व्यक्तियों के जीवन-संघर्ष, संवेदनाओं और जिजीविषा को स्वर प्रदान करता है। विकलांग विमर्श की कहानियाँ मात्र कहानी-संग्रह नहीं है, बल्कि यह सामाजिक दृष्टिकोणों की जड़ता और संवेदनहीनता पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए मानवीयता की पुनर्परिभाषा प्रस्तुत करता है।
कहानियों का शिल्प, भाषा और कथ्य
इस संकलन में कुल 15 कहानियाँ चयनित की गयी हैं। इस संकलन की कहनियाँ विकलांग जीवन की त्रासदियों, संघर्षों और जिजीविषा को बहुआयामी रूप में प्रस्तुत करती हैं। यह संकलन न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक आलोचना और चेतना के लिए भी महत्त्वपूर्ण है।
1. माई री मैं टोना करिहों–गीताश्री
यह कहानी लोकभाषा और ग्रामीण अंधविश्वासों की पृष्ठभूमि में स्त्री-शरीर, बीमारी और समाज की दृष्टि को उजागर करती है। भाषा में ठेठपन और लोक-स्वर है, जो पात्रों की जड़ों से जुड़े जीवन को प्रामाणिकता देता है। शिल्प के स्तर पर कहानी सशक्त संवादों और जीवन्त प्रसंगों के माध्यम से आगे बढ़ती है। कथ्य यह है कि स्त्री पर बीमारी और विकलांगता का ठप्पा सामाजिक कलंक में बदल जाता है।
2. लगन–दीप्ति गुप्ता
यह कहानी एक संस्थान जीवनदीप की यात्रा और उससे जुड़े पात्रों के संघर्ष को सामने लाती है। यहाँ शिल्प संस्मरणात्मक है—बीते हुए समय को वर्तमान से जोड़ते हुए। भाषा अपेक्षाकृत औपचारिक और साहित्यिक है। कथ्य में यह स्पष्ट है कि विकलांग बच्चों के लिए शिक्षा और प्रशिक्षण संस्थान जीवन का प्रकाशस्तंभ बन सकते हैं।
3. मुझे मार डाल बेटा–तेजेंद्र शर्मा
यह कहानी माता-पिता की असहायता और विकलांग संतान के बोझ से जूझते परिवार की त्रासदी को दिखाती है। भाषा मार्मिक और आत्मकथ्यात्मक है। शिल्प आत्मालाप और आंतरिक द्वंद्व पर आधारित है। कथ्य यह है कि समाज और व्यवस्था की उपेक्षा, विकलांगता से भी अधिक पीड़ादायक होती है।
4. सुनंदा/छोकरी की डायरी–सूर्यबाला (संदर्भ: झुग्गी-झोपड़ी जीवन)
यहाँ कथा-शिल्प डायरी और बाल-स्वर का मिश्रण है। भाषा टूटी-फूटी, झोपड़पट्टी की बोली से भरी है, जिससे प्रामाणिकता और करुणा दोनों बढ़ती हैं। कथ्य में यह साफ़ है कि ग़रीबी और विकलांगता मिलकर दुगनी मार करती हैं, लेकिन बच्चों की सहज हँसी उसमें भी जीवन का उजास दिखाती है।
5. चीख–धीरेन्द्र अस्थाना
यह कहानी एक विकलांग युवक टीपू के माध्यम से यौनिकता, वर्जना और असहायता के टकराव को सामने रखती है। शिल्प में तीव्र तनाव और मनोवैज्ञानिक चित्रण है। भाषा सधी हुई, संवाद कम, लेकिन वातावरण-चित्रण गहन है। कथ्य यह है कि विकलांग व्यक्ति भी इच्छाओं और वासनाओं से युक्त मनुष्य है, उसे केवल दया से नहीं देखा जा सकता।
6. अकथ कहानी प्रेम की–दिलीप
प्रेम और विकलांगता के बीच के गहन भावनात्मक सम्बन्ध को दर्शाती है। इसका शिल्प आत्मकथात्मक और संस्मरणप्रधान है। इसमें संवाद और आंतरिक एकालाप के सहारे पात्रों की भावनाएँ गहराई से उभरती हैं। भाषा संवेदनशील और भावुक है, जिसमें आत्मीयता और आत्ममंथन का भाव प्रमुख है। कथ्य यह है कि विकलांगता केवल शारीरिक सीमा नहीं, बल्कि प्रेम और जीवन की संभावनाओं को परखने की कसौटी भी है।
7. किराये का इंद्रधनुष–सूरज प्रकाश
सूरज प्रकाश की कथा का शिल्प आत्मालाप और संस्मरण का मिश्रण है। भाषा शोधपरक भी है और भावनात्मक भी। कथ्य यह है कि विकलांग जीवन में भी कला और साहित्य इंद्रधनुष रच सकते हैं, भले ही वह क्षणिक या ‘किराये’ का हो।
8. राजू–ममता कालिया
इस कहानी में शिल्प सीधा-सादा है और भाषा बोलचाल की। कथ्य यह है कि विकलांग बच्चे को परिवार और समाज दोनों कैसे देखभाल और उपेक्षा के बीच झुलाते हैं।
9. एक के साथ एक फ्री–पूनम मनु
शिल्प में व्यंग्यात्मकता और संवाद की सहजता है। भाषा समकालीन है। कथ्य विकलांगता के व्यावसायिक दोहन और सहानुभूति के दिखावे पर चोट करता है।
10. हे पानल हारे–डॉ. उषाकिरण खान
यहाँ शिल्प लोककथा और ग्रामीण जीवन का है। भाषा में मैथिली/बिहार का असर है। कथ्य यह है कि विकलांग स्त्रियाँ दोहरी मार झेलती हैं—एक देह की और दूसरी समाज की।
11. नैन्सी–सीमा व्यास
यह कहानी आधुनिक शहरी जीवन की है। शिल्प सीधा, संवादप्रधान। भाषा सरल, भावुकता से युक्त। कथ्य है—एक विकलांग बालिका की जीवन-यात्रा और उसकी इच्छाएँप्रदर्शित हुई हैं।
12. हौसलों की लहरों पर–रश्मि रविजा
शिल्प प्रेरणात्मक है। भाषा में सकारात्मकता और उत्साह है। कथ्य यह है कि विकलांगता के बावजूद साहस और आत्मबल से जीवन की राहें खोली जा सकती हैं।
13. पिता माँ होने तक–सुमन युगल
यह कथा कौस्तुभ और मुग्धा जैसे पात्रों की जीवन-यात्रा है। शिल्प संस्मरण और आत्मकथ्यात्मक संवाद का है। भाषा में साहित्यिकता और भावुकता है। कथ्य यह है कि विकलांगता के साथ जीते हुए भी प्रेम और रचनात्मकता जीवन को संपूर्णता दे सकते हैं।
14. नयनतारा–सीमा सिंह
शिल्प में स्मृति और वर्तमान का घालमेल है। भाषा में संगीत और संवेदनशीलता का मिश्रण है। कथ्य यह है कि विकलांग संतान भी परिवार का अभिन्न हिस्सा है, और उसका जीवन परिवार की संवेदनाओं की कसौटी बन जाता है।
15. पागल ही था वो–संदीप तोमर
यह कहानी शारीरिक विकलांगता और सामाजिक उपेक्षा को केंद्र में रखती है। शिल्प में आत्मालाप और समाज के प्रति प्रश्न हैं। भाषा सीधे-सीधे सवाल करने वाली है। कथ्य यह है कि समाज मानसिक विकलांगता को बीमारी नहीं, बल्कि कलंक की तरह देखता है।
सामाजिक और साहित्यिक परिप्रेक्ष्य
इन कहानियों से स्पष्ट है कि विकलांगता केवल शारीरिक सीमा नहीं, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना का भी प्रश्न है। यह संग्रह—
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स्त्री-शरीर और उसकी स्वायत्तता,
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विकलांग व्यक्तियों की यौनिकता और इच्छाएँ,
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शिक्षा और संस्थागत प्रयास,
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पारिवारिक रिश्तों की जटिलताएँ,
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साहस और आत्मनिर्भरता के उदाहरण सभी पहलुओं को समेटता है।
इस संग्रह में संकलित कहानियाँ विकलांगता को केवल शरीर के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों में देखने का आग्रह करती हैं।
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कौस्तुभ और मुग्धा की कथा आत्मनिर्भरता और जीवन-जीवनसाथी के सह-अस्तित्व को गहरे मानवीय रंगों में चित्रित करती है।
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झिंगुली जैसी स्त्रियों की कथा ग्रामीण समाज में स्त्री-शरीर और कोख के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण तथा स्त्री की अपनी स्वायत्तता पर विचारोत्तेजक विमर्श प्रस्तुत करती है।
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नयनतारा जैसे प्रसंगों में पारिवारिक जीवन और विकलांग संतान के साथ जीने की यथार्थपरक परिस्थितियाँ सामने आती हैं।
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कौस्तुभ और दीपशिखा की कथा विकलांगता से इतर प्रेम को प्रमुखता देने पर बल देती है कि प्रेम और आत्मीयता विकलांग व्यक्ति का भी उतना ही स्वाभाविक अधिकार है जितना सामान्य व्यक्ति का।
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कुछ कहानियाँ संस्थागत प्रयासों, शिक्षा और प्रशिक्षण की संभावनाओं को रेखांकित करती हैं, जिनमें विकलांग युवाशक्ति के लिए संस्थान बनाने के प्रयासों का उल्लेख है।
इस प्रकार संग्रह की कहानियाँ निजी-व्यक्तिगत जीवन से लेकर व्यापक सामाजिक संरचना तक फैली हुई हैं।
संग्रह का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष इसका सशक्त चरित्र-चित्रण है। विकलांग पात्र यहाँ दया या करुणा के पात्र नहीं, बल्कि संपूर्ण व्यक्तित्व वाले जीवंत मनुष्य हैं।
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नफीसा, नैन्सी और नयनतारा जैसे पात्र अपने संघर्षों और पारिवारिक विडंबनाओं के साथ उभरते हैं।
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मिताली और सिल्बी के रिश्ते विकलांगता के कारण बनने वाली साझी संवेदनाओं को उजागर करते हैं।
इन पात्रों के माध्यम से संग्रह यह स्थापित करता है कि विकलांग व्यक्ति ‘दया’ नहीं, बल्कि ‘समानता’ और ‘सम्मान’ के अधिकारी हैं।
यह संग्रह केवल विकलांगता का दार्शनिक पक्ष नहीं छूता, बल्कि—
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यौन विकलांगों की पीड़ा और संघर्ष
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शिक्षा और संस्थागत प्रयास
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पारिवारिक रिश्तों की उलझनें
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स्त्री की कोख और उसकी स्वतंत्रता
जैसे पहलुओं को गहराई से उठाता है।
इससे यह साबित होता है कि ‘विकलांग विमर्श’ केवल चिकित्सीय या जैविक विमर्श नहीं, बल्कि गहरे मानवीय और सामाजिक सरोकारों का विमर्श है।
संकलन के संपादक ने विविध लेखकों की कहानियों को एक सूत्र में पिरोकर न केवल साहित्यिक सौंदर्य को बरक़रार रखा है, बल्कि विकलांग विमर्श की बहुआयामी तस्वीर भी प्रस्तुत की है। इसमें स्त्री लेखिकाओं के अनुभव, ग्रामीण जीवन की झलक, शहरी यथार्थ और संस्थागत प्रयास शामिल हैं।
कहानियों की भाषा सरल, प्रवाहमयी और संवादप्रधान है। कहीं-कहीं लोकभाषा और बोली का प्रयोग पात्रों के जीवन-संसार को यथार्थ रूप से प्रस्तुत करता है (जैसे झिंगुली में)। कथाशिल्प में विविधता है—कुछ कहानियाँ संस्मरणात्मक शैली में हैं, कुछ रैखिक कथानक वाली और कुछ विचारप्रधान संवादात्मक।
विकलांग विमर्श की कहानियाँ हिंदी साहित्य में एक महत्त्वपूर्ण योगदान है। यह संग्रह हमें यह सोचने पर विवश करता है कि विकलांगता किसी व्यक्ति की अस्मिता का संपूर्ण परिभाषा नहीं है। हर पात्र अपने संघर्ष, स्वप्न और संवेदनाओं के साथ पूर्ण मनुष्य है। संग्रह का महत्त्व केवल साहित्यिक नहीं, बल्कि सामाजिक और मानवीय भी है। यह पुस्तक साहित्यकारों, शोधार्थियों और सामान्य पाठकों सभी के लिए आवश्यक पठन है क्योंकि यह हमें हमारी सामाजिक दृष्टि को अधिक संवेदनशील और समावेशी बनाने का आह्वान करती है।
संपूर्ण संकलन की कहानियाँ शिल्प और भाषा की दृष्टि से विविध हैं—लोकभाषा से लेकर संस्मरणात्मक शैली तक, संवादप्रधान से लेकर आत्मालाप तक। कथ्य में भी विविधता है—स्त्री-शरीर, ग़रीबी, प्रेम, यौनिकता, शिक्षा, परिवार और समाज। यही विविधता इस संग्रह को समकालीन हिंदी साहित्य में विशिष्ट बनाती है।
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