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किताब की मानिंद

 

मैं  खुल जाना चाहती हूँ तुम्हारे सामने
एक किताब के मानिंद, 
पर डरती हूँ कि तुम, पढ़कर मेरे हर हर्फ़ को, 
दुनिया के सामने इज़हार न कर दो। 
 
कराना चाहती हूँ रूबरू, ज़ख़्म-ए-नशेमन से, 
जो मिले हैं, अपने ही हमदर्दों से। 
पर डरती हूँ, तुम छू कर मेरे मर्म को, 
दामन मिरा दाग़दार न कर दो। 
 
ये भी सच है, मुझे प्यार नहीं तुमसे, 
पर समाना चाहती हूँ, तुम्हें अपने वुजूद में। 
डरती हूँ, होके बावस्ता मेरे जिस्म से, 
रूह को तुम बेक़रार न कर दो। 
 
दे न पाऊँगी एक बूँद इश्क़ भी, हसरत है मगर, 
झीनी चूनर में चाहत के सितारे सजाने की, 
डरती हूँ, जानकर मेरी कमज़र्फ़ ख़्वाहिशें, 
कहीं तुम मुझे दरकिनार न कर दो। 

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