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कितने ईमानदार हो

 

मुझे नहीं पता तुम कितने ईमानदार हो मेरे निमित्त
पर तब भी मन कहता है सच मान लूँ तुम्हारा कहा। 
 
कभी-कभी लगता है, तुम हो झूठे और छलिया
खिलकर दिढ़ हो चुके जो फूल, वीरानी बग़िया के
देकर अलहदा अहसास, कहते हो ‘कमसिन कली’, 
वो भी खिल उठती है जैसे, शबनम से लिया नहा। 
मुझे नहीं पता तुम कितने ईमानदार हो मेरे निमित्त
पर तब भी मन कहता है सच मान लूँ तुम्हारा कहा। 
 
जब वो होती है नदी, अल्हड़ सी, कलकल करती
होती है बड़े वेग में आगे बढ़ती, तोड़कर तटबन्ध
तब तुम बड़े  स्नेह से बाँध लेते हो अपनी बातों में, 
वो शिद्दत से महसूस करती हर हर्फ़ जो तुमने कहा। 
मुझे नहीं पता तुम कितने ईमानदार हो मेरे निमित्त
पर तब भी मन कहता है सच मान लूँ तुम्हारा कहा। 
 
सच जानते भी डूबती है तुम्हारे ल्फ़्ज़ों के दरिया में
सच ही तो है, जो भी तुम लिखते हो अपनी क़लम से
हर औरत दुनियावी चाहती है, ये उसका प्रियतम कहे
मानती है तुम्हें प्रियतम या इन्हीं बातों को उनका कहा। 
मुझे नहीं पता तुम कितने ईमानदार हो मेरे निमित्त
पर तब भी मन कहता है सच मान लूँ तुम्हारा कहा। 
 
मीठी-खट्टी सी, झूठी-सच्ची सी,  कुछ बातें हैं तुम्हारी
जिसमें खोजती है ख़ुद को, खिलखिलाती नायिका सी, 
झूठ या सच तो दो ही जानते हैं, एक तुम दूजा ख़ुदा
पर पा जाती है तुम्हारे शब्दों में, अपना मनचाहा जहाँ
मुझे नहीं पता तुम कितने ईमानदार हो मेरे निमित्त
पर तब भी मन कहता है सच मान लूँ तुम्हारा कहा। 

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