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विवेक

 

रमेश बाबू बालकनी में बैठ शाम की चाय की चुस्की के साथ पिछले कई सालों से यही दोहराते आ रहे हैं, मानों की जीवन के ये सारे घटनाक्रम किसी ने सहेज दिये हों और एक नियत अंतराल में उनकी पुनरावृत्ति होती जा रही हो। 

 हमेशा की तरह विवेक को सहारा देते हुए उसके तीनों दोस्त कहीं से ढूँढ़ कर घर ले आते हैं। 

36 वर्षीय मिट्टी का वह पुतला जिसमें साँस के आवागमन का क्रम जारी रहे ऐसी चाह रखने वाले कुछ क़रीबी लोग उसे बहला या लाड़-दुलार से एक कमरे में बंद कर आते हैं। 

कुछ देर घरवाले व उसके मित्र आँगन से सटे मुख्य द्वार पर खड़े होकर उस ज़िंदादिल व सबके प्रिय विवेक को याद करते हैं जिसे समाज के सभ्य लोगों द्वारा विभिन्न रूप से प्रताड़ित किया गया, कभी स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई के नाम पर, कभी बेरोज़गारी के ताने देकर, कभी शादी के प्रस्तावों के अस्वीकरण के एवज़ में तो कभी किसी दूसरे से उसकी तुलना करके। 

और अब देखो पिछले 8 वर्षों से न तो विवेक से, न ही उसके बारे में किसी ने ऐसा शब्द कहा होगा जो कि उसे दुख पहुँचा सके। 

कितनी सहानुभूति व प्यार उमड़ता है आज उसके लिए। लोग उसकी अच्छाई की मिसालें दिया करते हैं। 

कभी-कभी तो लगता है कि ऐसे ही विवेक से विवेकहीन हो जाना ठीक है समाज कि नज़र में बेहतर होने के लिए। 

यह कहकर हमेशा कि तरह रमेशबाबू का मन भर आया, चाय की प्याली ख़ाली हो गयी, व्याकुल सुधा चाय के कप समेट कर रसोईघर में चली गयी और शाम और गहरी होकर रात हो गयी। 

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