स्वतंत्र
काव्य साहित्य | कविता हरिपाल सिंह रावत ’पथिक’1 Sep 2019
ख़ुश हूँ कि.....स्वतंत्र हूँ।
प्रगतिशील..... गणतंत्र हूँ।
पर डरती हूँ,
कि कोई देख न ले,
आँखों में .... दबी वेदना को,
रुह पर बने ज़ख़्मों को,
ज़ख़्म.....
हाँ! ज़ख़्म ...जो नासूर से हैं...
रोज़ बनते हैं नए,
कुरेदे जाते हैं।
दर्द ....
दर्द .... उस बचपन का,
जो पिस चुका है, पिस रहा है,
भूख और ग़रीबी के, दरमियान।
दर्द....
दर्द.... उस तनुज का,
जिसके मसृण, देह को.....
सरहदों पर.....
भेद दिया गया, भेदा जा रहा है,
उग्र - तप्त अयस से।
दर्द......
दर्द... उस वनिता का,
जिसे जला दिया गया,
जलाया जा रहा है।
यौतुक की लालसा में।
दर्द....
दर्द.... उस मानवी मूर्त का,
जिसके अस्तित्व को.....
मिटा दिया गया, मिटाया जा रहा।
पाशविक धारणा से।
हाँ! यह भी सच है....
कि डरती हूँ अब ये.... कहने से,
कि ख़ुश हूँ..... स्वतंत्र हूँ।
प्रगतिशील..... गणतंत्र हूँ।
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