वो थकते नहीं हैं
काव्य साहित्य | कविता साक्षी शर्मा 'पंचशीला'1 Sep 2025 (अंक: 283, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
मैं सोच रही थी, अब वो थक चुके हैं,
देख कर लगा कि कुछ क्षण रुके हैं,
मैंने कहा खिलौना चाहिए,
वो चल पड़े बाज़ार लाने,
कह दिया मुझे सब चाहिए अभी ही,
वे दौड़ गए संसार लाने,
जो बात आई सपनों की मेरे,
वो चल पड़े सीढ़ी बनाने,
माथे पर शिकन देखी नहीं कि
दौड़ पड़े हर दुख मिटाने,
और
चलने लगी जब धूप में मैं,
वो पीछे चल दिए छाँव बनकर,
फँसने लगी मझधार में जब,
वे दौड़े आए नाव बनकर,
जब लगा हारने लगी मैं,
वो तुरंत आ गए राह बनकर,
भटकने लगी थी जहाँ भी मैं,
वे दौड़ आए पनाह बनकर,
सुन कर ज़रा सी चाह हमारी
वो तुरंत दौड़े जाते हैं,
एक क्षण भी नहीं रुकते हैं,
फिर भी मुस्कुराते हैं,
और मैं सोच रही थी की वे थक चुके हैं,
माँ ने बताया कि वे कभी थकते नहीं हैं।
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