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वृद्ध की व्यथा

दिवस के अवसान-सा
तट पर खड़ा हूँ अब एक वृक्ष बन
कमज़ोर और खोखली जड़ों के दम पर।
 
कभी उर्वर मिट्टी बन तुम्हें पाला था
एक इमारत बनी जिसकी नींव मैं था
चार-पाँच मंज़िलों का बोझ
अपने सीने पर ख़ुद सहा था।
 
पर आज तुम नीचे नहीं, ऊपर देखते हो
मेरी कमज़ोर आँखों और साँसों को
मिलती है तुम्हारी उपेक्षा
युवा वर्ग, नव किसलय को
मेरी मान्यताएँ चुभती हैं।
 
मेरी मर्यादा तुम्हारे लिए बन्धन है
जिससे तुम दूर, बहुत दूर जाना चाहते हो
मुझे मेरे हाल पर छोड़
नई राह बनाना चाहते हो।
 
सुनो तो!
तब क्या करोगे
जब तुम भी मेरी तरह
बूढ़े हो जाओगे?
क्या तब हथेलियाँ मलोगे
व्यर्थ पछताओगे?
 
पर तब तक 
वक़्त निकल जाएगा
आज का दिखावा कल छलावा बन सताएगा
सच को ठुकरानेवालो
तुम्हें सच ही तड़पाएगा! 

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