युयुत्सु
काव्य साहित्य | कविता नोरिन शर्मा15 Mar 2025 (अंक: 273, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
किसने चाहा युयुत्सु बनना . . .?
सत्य के पक्ष में डटे रहना
समय की नंगी तलवार पे चलना
वो भी बिना डगमगाए . . .!!!
कुछ
सत्ता के पक्षधर
अक्सर प्रश्नों के बवंडर
उड़ा देते हैं
आँखों में धूल की मोटी परत चढ़ा
पूछते हैं
टेढ़ी मुस्कान लिए
अंजाम क्या हुआ?
क्या
सत्य की रक्षा हुई . . .?
समय की कसौटी पर
खरे उतरने की चाहत में
कितने छल
कितने घाव
कितने प्रपंच
कितनी अपेक्षाएँ
कितने सत्ताधारियों की
आश्वासनों की होली
और कितने ही
तथाकथित “अपनों” की
उपेक्षाएँ मिलीं?
सुनो युयुत्सु!!!
इस उपक्रम में
प्रकाश और ऊष्मा से
सत्तारूढ़ शासकों की
महत्त्वाकांक्षाओं की मशालें
प्रज्वलित हो रही थीं
या
तुम स्वयं दाह्य बन गए चुके थे . . .?
(या तुम स्वयं दहन सामग्री बन चुके थे)
क्या रण योद्धाओं के संवेग भी
युद्धभूमि में गढ़ चुके थे . . .?
अनाथों, विधवाओं की सिसकियाँ
अब कानों को नहीं बेधतीं . . .
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