आग
काव्य साहित्य | कविता क्षितिज जैन ’अनघ’1 Jun 2019
वह आग जले तुम्हारे हृदय में जो मेरे भीतर जल रही
धधकने को मानो है प्रतिक्षण उत्साहित हो मचल रही
यह आग! जिसे ज़माना कहता आया सदा जवानी है
साथी वीरों की यह निर्भीक निश्शंक आग वो मर्दानी है
यह आग जो अन्याय के सामने कभी भी झुकती नहीं
कठिनाइयों के पर्वत पाकर समक्ष जो है रुकती नहीं
एक बार जो लिया मन में ठान त्याग उसका करती नहीं
पथ में आती चुनौतियों से कभी किंचित भी डरती नहीं ।
जिससे शत्रु सारे युद्ध करने से पहले ही घबरा जाते हैं
बचाओ! बचाओ! कह कर, अत्याचारी सारे चिल्लाते हैं
मानव की शक्ति इसमें निहित, यही पुरुषार्थ का बल है
संकल्प इसका सुमेरु समान अडोल,निष्कंप अटल है।
यह आग! मानवता और नृवंश की एकमात्र रही आस है
विजय में परिवर्तित होता इससे सर्वदा वीर का प्रयास है
आज सारे विश्व में हे वीरो इसे पुन: धधक कर जलने दो
जो बने बैठे पत्थर प्रगति में उन पाषाणों को पिघलने दो।
जन जन में आज इस दिव्य आग का तुम प्रसार करो
जो सोचा था लक्ष्य, पौरुष से अपने उसे साकार करो
बह जाएँगे विघ्न समस्त इस अग्नि के पावन प्रवाह में
अंधकार का विनाश होगा है जो व्यापा तुम्हारी राह में।
सभी हृदय दीप इस अग्नि से जाज्वल्यमान हो दहकेंगे
पवन में भी मानो अंगारे हैं जो जलते हुए सर्वत्र महकेंगे
तेज प्रकाशित होगा, ज्योतिर्मयी तब हर मानव मन में
साहस विद्युत सा प्रवाहित होगा, भारत के जन जन में।
हे वीरो! इस अग्नि का हृदय में तुम दृढ़ता से ध्यान करो
अपनी जवानी, अपने पराक्रम का कर्म से सम्मान करो
समय ने भी नीरवता का कर दिया इस घड़ी में त्याग है
एकस्वर में जयकार करो- अमर आग है! अमर आग है!
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रामदयाल रोहज 2019/06/01 05:30 AM
क्षितिज जी आपकी कविता 'आग' सचमुच पुरुषार्थ की आग लगाने वाली कविता है जो इस जीवन-युद्ध में घायल हो जाते है उनके लिए यह कविता संजीवनी से भरे प्याले की तरह है | बहुत ही शानदार कविता |