नवयुग का गीत
काव्य साहित्य | कविता क्षितिज जैन ’अनघ’1 Jul 2019
जो पीत हुए पत्र रोक रहे हरित नवकोंपलों को,
उन्हें आज वृक्ष शाखाओं से टूट कर गिरने दो
जो दिन हो गए हैं सारहीन पुरातन युग के वे
उन्हें आज हमारे जीवन से तुरंत तुम फिरने दो।
जो महल बने पड़े हैं विघ्न मानव प्रगति में
उन्हें बास्तील के क़िले समान गिराओ तुम
ध्वजा अन्याय व अनैतिकता की हो निर्भीक
सड़क सड़क पथ पथ पर मिलकर जलाओ तुम।
हटो! हटो! वर्षों से जमे पड़े निरर्थक तड़ागो!
जल की नवीन धाराओं को भू पर आने दो
ओ! काई के समान अटे पुरातनता के मेघो!
नवीन प्रतिभा की किरणों को अब छाने दो।
ओ सदियों के साक्षी गुरु आकार के वटवृक्षो!
नए पौधों को अपनी छाँव में तुम पनाह दो
इस परिवर्तन प्रवाह को न रोको बीच में आ
उदारता पूर्वक नवीन युग को तुम अब राह दो!
वरना अपने अस्तित्व का इस क्षण त्याग करो
अथवा नवयुग के उदय का तुम भी भाग बनो
जो पत्थर है नदी के मार्ग में, वे भी तो हटेंगे
राम के बाण द्वारा, रावण के दस शीश कटेंगे।
साक्षी इस महाभ्युदय के, तुम सभी सहर्ष बनो
न बोलो न सोचो आज, केवल देखो और सुनो
नवयुग के नवीन योद्धा आज इधर ही आ रहे
'विजय हो हमारी'- घोष कर गीत यह गा रहे।
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