आँखों के आँसू
काव्य साहित्य | कविता संजय वर्मा 'दृष्टि’1 Feb 2021 (अंक: 174, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
बेटी के ससुराल में
पिता के आने की ख़बर
बेसब्री तोड़ देती
बेटी की आँखें
निहारती राहों को।
देर होने पर
छलकने लगते आँसू
दहलीज़ पर आवाज़ लगाती
पिता की आवाज़–बेटी।
रिश्तों, काम-काज को छोड़
पग हिरणी सी चाल बने
ऐसी निर्मल हवा
सुखा देती आँखों के आँसू
लिपट पड़ती अपने पिता से।
रोता-हँसता चेहरा बोल उठता
पापा
इतनी देर कैसे हो गई
समय रिश्तों के
पंख लगा उड़ने लगा
मगर यादें वहीं रुकी रहीं
मानो कह रहीं हों
अब न आ सकूँगा मेरी बेटी।
मगर अब भी
बेटी की आँखें
निहारती राहों को।
याद आने पर
छलकने लगते आँसू
दहलीज़ पर आवाज़ लगाती
पिता की आवाज़–बेटी
अब न आ सकी।
पिता की राह निहारने के बजाय
अब आकाश के
तारों में ढूँढ़ रही पिता
कहते हैं कि लोग मरने के बाद
बन जाते है तारे।
आँसू ढुलक पड़ते
रोज़ गालों पर
और सूख जाते अपने आप।
क्योंकि निर्मल हवा कभी
सुखा देती थी आँखों के आँसू
जो अब हैं थम चुके।
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