अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

ऐ ज़िन्दगी

ऐ ज़िन्दगी सुन,अपनी रफ़्तार ज़रा धीमी कर,
मैं थक सा गया हूँ, थोड़ा आराम दे दे,
है मुमकिन अगर तो लौट चल, ख़यालों की दुनिया में,
वो गुज़रे लम्हे लौटा दे, वो शाम दे दे।
 

मजबूर होकर कब तलक, तेरे फ़ैसले करूँ मंज़ूर,
हर दफ़ा तूने मुझसे बेईमानी की है,
निरंकुश होकर तूने हर चाल चली है मुझ पर,
हर मर्तबा अपनी मनमानी की है।


आज तलक तेरे इशारों पर, दौड़ता आया हूँ मैं,
लम्हातों को बिन जिये ही, छोड़ता आया हूँ मैं
रहम कर मुझ पर,मेरे जज़्बातों की क़द्र कर,
बस आ रहा हूँ मैं, कुछ पल तो सब्र कर।


गुज़ारिश है तुझसे, एक इजाज़त तो दे दे,
वो बरसों से बिछड़ी, हुई मुहब्बत तो दे दे,
ताउम्र मैं रहूँगा, शुक्रगुज़ार तेरा,
वो लम्हे दोबारा जीने की, मोहलत तो दे दे।

महेश पुष्पद

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

1984 का पंजाब
|

शाम ढले अक्सर ज़ुल्म के साये को छत से उतरते…

 हम उठे तो जग उठा
|

हम उठे तो जग उठा, सो गए तो रात है, लगता…

अंगारे गीले राख से
|

वो जो बिछे थे हर तरफ़  काँटे मिरी राहों…

अच्छा लगा
|

तेरा ज़िंदगी में आना, अच्छा लगा  हँसना,…

टिप्पणियाँ

Rohit Yadav 2019/05/19 05:02 AM

Gajab bahut sunder.shufiyana andaj Mahesh ji

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

नज़्म

चिन्तन

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं