अनुरोध
काव्य साहित्य | कविता अजन्ता शर्मा6 Apr 2007
हे बादल!
अब मेरे आँचल में तृणों की लहराई डार नहीं,
न है तुम्हारे स्वागत के लिये
ढेरों मुस्काते रंग
मेरा जिस्म
ईंट और पत्थरों के बोझ के तले
दबा है।
उस तमतमाये सूरज से भागकर
जो उबलते इंसान इन छतों के नीचे पका करते हैं
तुम नहीं जानते...
कि एक तुम ही हो
जिसके मृदु फुहार की आस रहती है इन्हें...
बादल! तुम बरस जाना...
अपनी ही बनाई कंक्रीट की दुनिया से ऊबे लोग
अपनी शर्म धोने अब कहाँ जायें?
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