प्रवाह
काव्य साहित्य | कविता अजन्ता शर्मा6 Apr 2007
बनकर नदी जब बहा करूँगी,
तब क्या मुझे रोक पाओगे?
अपनी आँखों से कहा करूँगी,
तब क्या मुझे रोक पाओगे?
हर कथा रचोगे एक सीमा तक
बनाओगे पात्र नचाओगे मुझे
मेरी क़तार को काटकर तुम
एक भीड़ का हिस्सा बनाओगे मुझे
मेरी उड़ान को व्यर्थ बता
हँसोगे मुझपर, टोकोगे मुझे
एक तस्वीर बता, दीवार पर
चिपकाओगे मुझे,
पर जब...
अपने ही जीवन से
कुछ पल चुराकर
मैं चुपके से जी लूँ!
तब क्या मुझे रोक पाओगे?
तुम्हें सोता देख,
मैं अपने सपने सी लूँ!
एक राख को साथ रखूँगी,
अपनी कविता के कान भरूँगी,
तब क्या मुझे रोक पाओगे?
जितना कर सको प्रयास
कर लो इसे रोकने का,
इसके प्रवाह का अन्दाज़ा तो —
मुझे भी नहीं अभी!
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