जमाव
काव्य साहित्य | कविता अजन्ता शर्मा6 Apr 2007
तमतमाये सूरज ने
मेरे गालों से लिपटी बूँदें सुखा डालीं,
ज़िन्दगी तूने जो भी दिया...
उसका ग़म अब क्यों हों?
मैं जो हूँ
कुछ दीवारों और
काँच के टुकड़ों के बीच
जहाँ चन्द उजाले हैं
कुछ अँधेरे घंटे भी
कुछ ख़ास भी नहीं
जिसमें सिमटी पड़ी रहूँ
ख़ाली सड़क पर
न है किसी राहगीर का अंदेशा
फिर भी तारों से डरती हूँ
कि जाने
मेरे आँचल को क्या प्राप्त हो?
फिर भी
हवा तो है!
मेरी खिड़की के बाहर
उड़ती हुई नन्हीं चिड़ियों की क़तार भी है।
मेरे लिये
ठहरी ज़मीं है
ढाँपता आसमां है
ऐ ज़िन्दगी
तेरे हर लिबास को अब ओढ़ना है
तो उनके रंगों में फ़र्क़ करने का क्या तात्पर्य?
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