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अस्तित्व

क्यों अजनबी बनता जा रहा हूँ
अपने ही लोगों में
क्यों ये गलियाँ अनजान सी हो गयी हैं
क्यों लोग अब पहचानते नहीं
क्यों लोग अब नये से लगते हैं
क्यों चाय की मेहफ़िल भी फीकी लगती है
जीवन के कुछ पहलू ने ,
हमे पराया कर दिया
सबकी ज़िंदगी बदल गयी
सब कुछ छिन गया
शायद अपनी पहचान भी
अब तो लगता है
लोग भी बदल गये हैं
मेरे ऊपर आशीष न्योछावर
करने वाली नज़र भी बदल गयी है
हर बार ये नज़र किसी को खोती है
तो क्या जितनी तेज़ी से ऊँचाइयाँ
छू रहा हूँ
उतनी ही तेज़ी से अजनबी भी बनता जा रहा हूँ
क्या हर एक पायदान मुझे अपनों से
दूर ले जा रहा है
और जहाँ जी रहा हूँ वहाँ कोई अपना नहीं
तेज़ी से दौड़ता शहर और उस दौड़ में शामिल इंसान
जिसकी आवाज़ गाड़ी के आवाज़ में दब जाती है
मशीन की तरह ज़िंदगी
फ़िर मैं कौन हूँ जिसका अस्तित्व ही नहीं है
वह कहीं का नहीं है ......................
बस एक मशीन......और कुछ नहीं

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