पहाड़
काव्य साहित्य | कविता सन्तोष कुमार प्रसाद15 Jan 2024 (अंक: 245, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
प्रत्येक सुबह उठकर उत्तर
कि ओर देखता हूँ
दूर से सूर्य कि किरणों के
साथ पहाड़ दिखाई पड़ता है
पहले तो हरा भरा नज़र आता था
पर आजकल जंगल नदारद है
पहाड़ भी कट रहे हैं
ऐसा लगता है
वे हो गए हैं नंग और बदरंग
ट्रॉली में लदकर आ रहे हैं
पहाड़ों के अंग और प्रत्यंग
गाड़ियों से गिरते हुआ उनका रक्त
और प्लैटफ़ॉर्म में जमा है
रक्त, मांस और हड्डियों का भंडार
जो लदकर जा रहे हैं
देश के चारों ओर
आधारभूत संरचनाओं के विकास के लिए
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