परिवर्तन
काव्य साहित्य | कविता शकुन्तला बहादुर15 Mar 2021 (अंक: 177, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
ये तुम्हारी ज़िंदगी है, तुम जियो भरपूर इसको।
फूल बन सुरभित करो, उपवन ये सारा,
तुम सदा आगे बढ़ो, बनकर परस्पर तुम सहारा।
चकित सा रह जाए जग ये, देख दृढ़-निश्चय तुम्हारा,
सफलता तव चरण चूमे, बढ़े नित गौरव हमारा॥
ज़िंदगी हम जी चुके हैं, उम्र भी अब ढल गयी है,
हो गये अनुभव पुराने, बुद्धि भी तो खो गयी है।
हम किसी का मार्गदर्शन, कर नहीं सकते यहाँ,
है ज़माना तीव्र गति से, बढ़ गया जाने कहाँ?
पीढ़ियों के बीच में हैं, दूरियाँ कितनी बनीं,
मानसिकता भिन्न है और विवशताएँ भी घनी।
नये युग की मान्यताओं में, सभी बँध से गये हैं,
हम लिये संस्कृति पुरानी, मूक-दृष्टा रह गये हैं॥
उभरती सी नयी पीढ़ी, बहुत आगे जाएगी,
ढल रही पीढ़ी पुरानी, देखती रह जाएगी।
जर्जरित सी डाल है वह, टूटकर गिर जाएगी,
शाम है ये ज़िंदगी की, रात में सो जाएगी॥
पीढ़ियों का द्वन्द्व तो ये, सदा से चलता रहा है,
बिखरते से वृद्ध मन को, समय ये छलता रहा है।
सृष्टि का ये क्रम सुनिश्चित,आदि से चलता रहा है,
और हर युग में यही जग, इसी में ढलता रहा है॥
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