आख़िरी निशानी
कथा साहित्य | कहानी ज्योत्स्ना मिश्रा 'सना'15 Mar 2020 (अंक: 152, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
जाने कहाँ से शिवप्रसाद जी के बूढ़ी टाँगों में इतनी जान आ गई थी, आधे घंटे से अपने ग्यारह वर्षीय पोते को बाँहों में लिए दौड़े जा रहे हैं, सारे कपड़े ख़ून से लथपथ हो गये हैं, ना उस ओर उनका ध्यान है, ना ही अपने पैरों के छालों पर, उनको बस अस्पताल पहुँचना था, इसके अलावा कोई और बात सुझाई नहीं दे रही थी।
जहाँ उनके पैर अस्पताल की ओर दौड़ रहे थे वहीं उनका दिमाग़ ख़्यालों में दौड़ रहा था । कितनी बार कलावती ने कहा था छत पर दीवार बना दो और हर महीने वे कोई ना कोई बहाना बना दिया करते, कहते अगले महीने बनवा देंगे और उस महीने वो बात टल जाती। यही हर महीने की बात होने लगी, अगले महीने, अगले महीने करते करते पाँच साल बीत गए।
अब मुसीबत ये थी कि राहुल किसी की नहीं सुनता और मौक़ा मिलते ही छत पर चला जाता। इस महीने छत पर बनाने के लिए कलावती ने अपने सिर की सौगंध दे दी थी, इसीलिए पेंशन लेकर लौटते वक़्त मिस्त्री से बात करते हुए आया था। पर घर आते ही, कलावती की चीख सुनकर, आँगन की ओर दौड़े और वहाँ का मंज़र देखकर होश उड़ गए। अपने गमछे को राहुल के माथे पर बाँधा, बाँहों में उठाया राहुल को और दौड़ पड़े अस्पताल की ओर।
अपने ख़्यालों में उन्हें पता ही नहीं चला कब अस्पताल आ गया और वे अस्पताल के अंदर दौड़ते चले जा रहे थे, होश उन्हें तब आया जब डॉक्टर साहब ने उन्हें रोक कर पूछा, "बाबा, कहाँ दौड़े जा रहे हैं?"
शिवप्रसाद जी ने रोते हुए कहा, "मेरे पोते को बचा लीजिए, बाबू, मेरे पोते को बचा लीजिए, मेरे बेटे की आख़िरी निशानी है, बाबू, मेरे पोते को बचा लीजिए।"
डॉक्टर ने तुरंत वॉर्ड ब्याय को आवाज़ लगाई, स्ट्रेचर लाने को कहा। शिवप्रसाद जी ने उसपर लिटा दिया राहुल को बाँहों से निकाल कर, खड़े एकटक देखते रहे। उसे ओ. टी. के अंदर ले जाते हुए, जैसे ही दरवाज़ा बंद हुआ, शिवप्रसाद जी ने अपने दोनों हाथ जोड़ कर आसमान की ओर देखा और कहा, "अब इसे मत छीन मुझसे, तुझे तेरे भगवान होने का वास्ता, इसे मत छीनना।"
अभी कल की ही बात लगती है, कितना ख़ुश था उनका संतोष। नई नई नौकरी लगी थी, एडवांस भी दिया था मालिक ने, उसने लाकर माँ-बाबा के चरणों पर रख दिया, और बोला था, "तुम देखना माँ, अब सब अच्छा होगा, बहुत दुख देखे हैं हम सबने, बस और नहीं।"
दरवाज़े के पास खड़ी मालती, अपने पति की नौकरी की ख़बर सुनकर मारे ख़ुशी के रो पड़ी थी। जब से ब्याह कर के आई थी, सिवाय दुख के कुछ नहीं देखा था, फिर भी हमेशा मुस्कराहट ही रहती उसके होंठों पर। सबकुछ सही से चल रहा था, मगर उस ईश्वर को कैसे मंज़ूर हो जाता कि उनके घर में ख़ुशी रह जाए। ज़्यादा दिनों तक, आ ही गया वो मनहूस दिन जब उनका सबकुछ लुटने को था।
शाम को संतोष घर आते ही बोला, "मालती मेरे कुछ कपड़े रख दो, कल मालिक के साथ मुम्बई जाना है।” वहीं से अपनी माँ को आवाज़ लगाई, "माँ, मेरे लिए कुछ नाश्ता भी बाँध देना, तुम जानती हो ना, मैं बाहर कुछ नहीं खा पाता हूँ।"
शिवप्रसाद जी ने पूछा, "क्या हुआ संतोष, क्यों घर सिर पर उठा रखा है।"
संतोष बोला, "बाबूजी, कल सुबह मालिक किसी कॉन्फ़्रेंरेंस के लिए मुम्बई जा रहे हैं, मगर उनका सारा काम तो मैं सँभालाता हूँ, तो मालिक के साथ मुझे भी जाना होगा, बहुत बड़ा होटेल है बाबा, मालिक कुछ ताज होटल, ऐसा नाम बता रहे थे।"
सुबह हुई वो चला गया, वो आख़िरी बार था जब सबने उसे देखा था।
वो छब्बीस अक्तूबर, 2008 की मनहूस शाम, जब उन्होंने रेडियो पर प्रसारित समाचार में सुना कि कुछ आतंकवादियों ने ताज होटल घेर लिया है। कितना बुलाया था ईश्वर को कि कोई अनहोनी ना हो जाए, मगर उसे हम ग़रीबों कि क्या पड़ी है! दो दिन तक जब कोई ख़बर नहीं मिली तो पड़ोस के लक्ष्मीनाथ के मँझले बेटे के साथ संतोष के मालिक के घर चले गए कि शायद कोई ख़बर मिल जाए। वहाँ जाकर जो पता चला, उनपर तो मानो आसमान ही गिर पड़ा था। संतोष और उसके मालिक दोनों ही उस आतंकवादी हमले में मारे गए थे।
जाने कैसे शिवप्रसाद जी घर पहुँचे याद ही नहीं उन्हें। बड़ी मुश्किल से कलावती को बताया ही था कि मालती ने सब सुन लिया... सह नहीं पाई वह बच्ची और गश खाकर गिर पड़ी। अस्पताल लेकर गए तो वहाँ एक नन्हें बालक को जन्म देकर, चली गई अपने पति के पास। एक ही दिन में सब कुछ हार गए थे। किसका शोक मनाएँ बेटे का, बहू का, या ख़ुशी मनाएँ इस नए जन्मे बच्चे की। आज तक अपने संतोष और मालती के आख़िरी निशानी को सँभाल रहे थे।
यादों का सिलसिला थमा डॉक्टर की आवाज़ से।
डॉक्टर ने कहा, "बाबा, आपने आने में देर कर दी, हम नहीं बचा पाए उसे, खून बहुत बह गया था, हमें माफ़ कर दीजिए।"
धम्म से बैठ गए ज़मीन पर, छूट गया ये सहारा भी, नहीं बचा पाए अपने बहू-बेटे की इस आख़िरी निशानी को! क्या जवाब देंगे कलावती को? कैसे बताएँगे उसे कि नहीं बचा पाए उसे जीने के एकमात्र सहारे को! आख़िर क्यों इतना निष्ठुरता से छीन लिया उस ईश्वर ने सबकुछ उनका?
वहीं डॉक्टर साहब के पैरों पर गिर पड़े और गिड़गिड़ाने लगे, “एक बार फिर देख लीजिए साहब, आप तो भगवान हैं, आप हाथ लगाएँ तो जी उठेगा मेरा पोता, एक बार और देख लीजिए।”
डॉक्टर अपना पैर छुड़ाने का प्रयास करते हुए उन्हें हिलाने लगे, और अचानक उनकी आँख खुली तो देखा कलावती उन्हें हिला रही है और पूछ रही है, “क्या हुआ जी, क्यों चिल्ला रहे हैं, क्या बड़बड़ा रहे हैं, बचा लीजिए, किस को क्या हो गया?“
शिवप्रसाद पसीने से तर-ब-तर थे। उन्हें कुछ पल लगे होश आने में फिर कलावती की ओर देखकर शिवप्रसाद जी बोले, “वो सब छोड़ो, थोड़ी चाय दे दो, मिस्त्री के पास जाना है, छत की दिवार के लिए बात करनी है, आज बयाना भी दे दूँगा।”
कलावती उठकर चाय बनाने चली गईं तो हाथ जोड़कर ईश्वर का धन्यवाद दिया कि यह भयानक सपना ही सही मगर सपना ही था। चाय पी कर शिवप्रसाद जी चल दिए अपने पोते के सुरक्षा का इंतज़ाम करने।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
ग़ज़ल
नज़्म
बाल साहित्य कविता
कहानी
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं