प्रकृति सुर में नहीं है
काव्य साहित्य | कविता ज्योत्स्ना मिश्रा 'सना'15 Jun 2019
वो कहते हैं आजकल प्रकृति
बिलकुल भी सुर में नहीं है
हम कहते हैं प्रकृति हेतु सम्मान
कदाचित् तुम्हारे उर में नहीं है।
अपने स्वार्थ के लिए कर रहे हम
प्रकृति का इतना विलय
कि जाने अनजाने ही भूल रही
धरित्री अपनी उचित लय।
दिया है माँ धरित्री ने इतना
हो सके हर मनुष का पोषण
परन्तु लोलुपता के वशीभूत हो
कर रहे अपनी ही माँ का शोषण।
जो तू बोएगा वही कल काटेगा
हो रहा है पूर्ण यह वलय
सावधान! मनुष्य तेरा ही कृत्य
ला रहा प्रतिदिन नई प्रलय।
चाहत है गर कि न हो जाए
यह ब्रह्मांड इतना शीघ्र शेष
तो जाग और जगा सबको
बचा ले उसे जो रहा अवशेष।
वो कहते हैं आजकल प्रकृति
बिलकुल भी सुर में नहीं है
हम कहते हैं प्रकृति हेतु सम्मान
कदाचित् तुम्हारे उर में नहीं है।
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