अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

आम्रपाली 

अब तक जीवंत सा है सब 
कुछ मेरे स्मृति पटल में 
मैं खड़ी असहाय चाह रही थी 
समा जाऊँ इस धरातल में 

 

एकत्र हुआ था संपूर्ण वैशाली 
नगर चर्चा का मैं थी विषय 
कोलाहल से भरा था जनसमूह 
होना था आज मेरा निर्णय 

 

ना थी जानकारी किसी को भी हूँ 
किस की वंशज किस कि मैं दुहिता 
सब के मुख पर था यही कथन के 
'माँ' थी मेरी कदाचित् कोई पतिता 

 

ईश्वर ने दिया यह अपार सौंदर्य 
पर सब कहते हैं मैं हूँ इसकी दोषी 
हर नेत्र कर रहा था मुझे विवस्त्र 
हर पुरुष बन गया था मेरा अभिलाषी 


चल रहा था अंदर बाहर पुरज़ोर मंथन 
क्या बन पाऊँगी किसी की परिणीता? 
परंतु मेरा जन्म,  यह यौवन, यह रूप 
अनायास ही बना रहा था मुझे लाँछिता 


इस सभा ने अंततः किया मेरा निर्णय 
सुनकर आई मुख पर एक मलिन स्मिता 
अंधकार में डूब गया था भविष्य मेरा 
हर स्वप्न से हो गई थी अब मैं वर्जिता 


हुआ घोषित आम्रपाली है नगरवधू 
लहरा गया समूह में हर्ष पुरुषोचित 
ना थी कोई प्रेयसी किसी प्रीतम की 
होना था हर पुरुष के लिए सज्जित 


हर दिवस रहता केवल स्याह मेरा 
हर रात्रि होती थी कालिमा रंजित 
हर बहते समय के साथ हर क्षण हर पल 
हो रही थी मेरी देह और आत्मा दूषित 


आज यह कैसा आभास है कैसी कंपन 
कैसी आस जगी है इस व्याकुल मन में 
कदाचित् प्रभाव है उस तेजोमय आभा का 
जो थी उस भिक्षुक के शांत नयन में 


कुचल दिया था अपने ही करों से अपनी 
हर इच्छा को, आज जागी है नई चाहत 
याचना केवल इतनी ही है, मोक्ष प्राप्ति के 
पथ पर अग्रसर हूँ,  सहायक बने तथागत 


बुद्धं शरणं गच्छामि। धर्मं शरणं गच्छामि। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

yamini gupta 2019/08/28 04:34 AM

ममस्पर्शी भाव अभिव्यक्त करती पंक्तियां

Debabrata 2019/08/15 01:25 PM

Suoerb

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता

ग़ज़ल

नज़्म

बाल साहित्य कविता

कहानी

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं