चाबी का गुच्छा
कथा साहित्य | कहानी ज्योत्स्ना मिश्रा 'सना'1 Sep 2019
उमा देवी आज फिर अपने परिवार के साथ गाँव जाने को तैयार हो रहीं थीं। दो दिन से तैयारी चल रही है, मगर अभी तक भी, ख़त्म हो ही रही नहीं थी। हर साल ही अपने परिवार के साथ गाँव में दुर्गा पूजा करने की प्रथा का पालन करती आईं थीं और इसमें पूरे परिवार ने उनका पूर्ण सहयोग दिया है, कोई कहीं भी हो या कितना भी व्यस्त हो यह छह दिन हर काम से समय निकाल कर सभी गाँव जाते ही थे।
तभी बड़े बेटे प्रदीप्तो की आवाज़ सुनाई दी, “अरे भाई, तुम औरतों का साज-शृंगार शेष हो गया हो तो चलें? देर से निकले तो पहुँचने में देर हो जाएगी, वहाँ विश्वनाथ भैया को नाहक़ परेशानी होगी।”
मँझला सुदिप्तो भी बोल पड़ा, “हाँ दादा, इन औरतों को तो चार दिन पहले तैयार होने के लिए बोलना चाहिए।”
इससे पहले कि छोटा शुभेन्दू भी कुछ कहता, उमादेवी को आता देखकर चुप हो गया। तीनों भाई अच्छी तरह जानते थे, घर की बहुओं पर कोई टिप्पणी की तो ख़ैर नहीं, ख़ामख़्वाह माँ से डाँट पड़ जाएगी।
तभी तीनों बहुएँ आ गईं, सब गाड़ी में बैठे, माँ ने बड़ी बहू मीनाक्षी से पूछा, “पूजा का सब सामान रख लिया है ना।”
मीनाक्षी ने हामी भर दी, तो उमादेवी ने मँझली बहू संध्या से पूछा, “विशु के परिवार के लिए तोहफ़े और मिठाइयाँ रख लीं।”
संध्या ने भी हामी भरते हुए कहा, “माँ, ये भी कोई भूलने वाली बात है, उनका सामान तो सबसे पहले रखवा लिया था।”
विश्वनाथ और उसकी पत्नी गाँव में उनके पुश्तैनी मकान और खेत का देखभाल करते हैं सालों से। उनकी वज़ह से सब कुछ सही चल रहा है कभी कोई परेशानी नहीं हुई, तो उनका ख़्याल भी रखना चाहिए। फिर उमादेवी ने छोटी बहू, मधुमिता से पूछा, “तुम ठीक से बैठी हो ना?” मधुमिता ने धीरे से हामी भर दी, तब उमादेवी ने कहा, “प्रदीप्तो, गाड़ी आराम से चलाना, जानता है ना मधु को छटा महीना चल रहा है, कोई असुविधाजनक परिस्थिति नहीं होनी चाहिए।”
प्रदीप्तो की बजाय छोटे शुभेन्दु ने जवाब दिया, “आप बिलकुल चिंता मत करो, हम तीनों बारी-बारी गाड़ी चलाकर पहुँच जाएँगे, कोई असुविधा नहीं होगी।”
उमादेवी फिर कुछ नहीं बोलीं। जैसे ही गाड़ी शुरू हुई, उमादेवी ने हाथ जोड़ दिए, मगर इससे पहले कि वे कुछ बोल पातीं, उनकी तीन वर्षीय पोती सोनल बोल पड़ी, “दुग्गा, दुग्गा”, और सब हँस पड़े, तो उमादेवी का पोता अम्लान तुनक गया, बोला, “ये तो दिदा को बोलना था, तूने क्यों बोला।“ इससे पहले कि बहस बढ़ जाए, मधुमिता ने दोनों को समझाया और बात वहीं ख़त्म हो गई।
उमादेवी ने प्यार भरी नज़रों से मधुमिता को देखा, अपने आप को बहुत भाग्यवान समझती थीं। तीनों बहुएँ एकदम खरा सोना थीं। कभी किसी बात पर अनबन नहीं, एकदम बहनों की तरह रहती थीं। उनके परिवार के आपसी प्रेम की मिसाल देते हैं सब! मगर कभी-कभी उमादेवी घबरा जातीं कि कहीं किसीकी नज़र ना लग जाए उनके परिवार को। प्रदीप्तो के बाबा के जाने के समय प्रदीप्तो पंद्रह वर्ष का, बिभु बारह का और छोटा तो मात्र सात का ही था। बड़ी मुश्किल से तीनों बेटों को पढ़ाया और क़ाबिल बनाया। जहाँ प्रदीप्तो का कंस्ट्रक्शन का काम अच्छी तरह से चल रहा था वहीं सुदीप्तो सरकारी अस्पताल में डॉक्टर था तो छोटा आई.पी.एस. था। गाँव में, शहर में सब इनके परिवार का बहुत सम्मान करते थे। उमादेवी के मन में हमेशा एक डर रहता था कि बहुएँ आएँगीं तो कहीं उनका परिवार अलग ना हो जाए, पर ऐसा बिलकुल नहीं हुआ; माँ दुर्गा की असीम कृपा रही है।
इन यादों का तांता तब टूट गया जब अम्लान की आवाज़ सुनाई दी, “हमारा बड़ा घर आ गया, हमारा बड़ा घर आ गया।”
गाड़ी रुकते ही विश्वनाथ सामने ही खड़ा था, साथ में उसकी पत्नी श्यामली भी थी। दोनों ने आकर उमादेवी के पाँव छुए, बारी-बारी सभी बच्चों ने विश्वनाथ और उसकी पत्नी के पाँव छुए। सारा सामान विश्वनाथ अंदर ले गया।
सब खाना वग़ैरह खा कर आराम करने चले गए। जब उमादेवी अपने कमरे में गईं तो दरवाज़ा किसी ने खटखटाया, उमादेवी ने पूछा, “कौन है?”
बाहर से आवाज़ आई, “काकी माँ, मैं हूँ आपका विशू।”
उमादेवी बोली, “विशू, तू है... बाहर क्यों खड़ा है, अंदर आ।”
विश्वनाथ अंदर आकर अपनी काकी के पैरों के पास बैठ गया, और खेत का हिसाब बताने को हुआ तो उमादेवी ने उसे टोक दिया, बोलीं, “विशु, ये हिसाब-किताब मुझे क्यों बताता है, तुझे किसी ने पूछा है क्या? तू मुझे अपने बारे में बता, श्यामली, अपना पार्थ और अनिंदिता बिटिया, सब कैसे हैं?”
उमादेवी का बोलना बंद हुआ तो विश्वनाथ ने बताया, “मैं तो अच्छा-भला आपके सामने हूँ, श्यामली तो अनिंदिता की शादी की तैयारी में व्यस्त है, पार्थ कल सुबह पहुँच जाएगा। उसके कॉलेज की छुट्टियाँ आज से शुरू हुई हैं, वो कल सुबह आ जाए तो स्वयं देख लेना। अच्छा काकी माँ, अब आप आराम करो, बहुत रात हो गई है, कल सुबह से ही पूजा शुरू हो जाएगी, कल सप्तमी है ना, मैं जाता हूँ अब।”
इतना कहकर वो उठकर चला गया, उमादेवी ने हाथ जोड़ कर मन ही मन दुर्गा माँ को नमन किया और सोने चली गई।
संध्या आरती करने के बाद उमादेवी अपने कमरे में बैठी थीं, फिर माँ दुर्गा को नमन किया कि पूजा बिना किसी विघ्न के सम्पूर्ण हो गई। आज विजयादशमी थी, बस कल का एक दिन और; फिर वापसी है। एक-दो महीने में फिर से आना है, अनिंदिता का ब्याह जो है। इन्हीं विचारों में उलझी थीं वे कि अचानक उनकी नज़र कमरे के एक कोने पर रखे संदूक पर पड़ी। मन हुआ ज़रा देखें तो क्या रखा है उसके अंदर? लेकिन अपनी थकावट और उम्र को ध्यान में रखते हुए संदूक उठाकर लाने का विचार त्याग दिया उन्होंने। पर मन बार-बार उसी ओर खिंचा जा रहा था। तभी तीनों बहुएँ उनके कमरे में आईं चाय लेकर। वो तो सिर्फ़ एक बहाना था; तीनों बहुओं को आदत थी उमादेवी के साथ बैठकर शाम की चाय पीने की और गप्पें मारने की। यह उन चारों के बीच का बंधन उनको और क़रीब ले आता था। चाय और बातें ख़त्म हो गईं तो उमादेवी ने बड़ी बहू से कहा, ”मीनाक्षी, ज़रा वो संदूक तो यहाँ लाना, देखूँ तो इसमें क्या रह गया है?“
इससे पहले कि मीनाक्षी कुछ करती, संध्या संदूक उठाकर ले आई, तीनों बहुओं में यही ख़ासियत थी, वो एक दूसरे का काम करने को तत्पर रहतीं। संदूक के आते ही उमादेवी ने उसे खोला, उसमें सुदिप्तो के बाबा की सोने की चेन वाली घड़ी थी, उन दोनों की शादी के जोड़े थे, इक पुरानी सी डायरी और… यह क्या चमक रहा था…? निकाल कर देखा तो उनकी शादी में उनके दादा का दिया हुआ चाँदी का चाबी का गुच्छा था। तीनों बहुएँ एकदम अवाक् होकर देख रही थीं। क्या चमक थी, क्या चाँदी के तार से किया हुआ काम था, उसपर यह लाल चमकीले पत्थर, और वो करीने से लगे घुँघरू, कितनी मधुर खनक थी इस चाबी के गुच्छे की। जहाँ तीनों बहुएँ इस चाबी के गुच्छे की ओर लालायित दृष्टि से देख रहीं थीं वहीं उमादेवी अपने अतीत के ख़्यालों में गुम हो गई थीं। बड़े दादा उनके विवाह के एक हफ़्ते पहले किसी काम से कटक गए थे। वापस आने पर उमादेवी ने उनसे पूछ लिया, “दादा, मेरे लिए क्या लाए हो?“ दादा ने ये चाबी का गुच्छा दिखाया तो वे ख़ुशी से उछल पड़ी थीं और बोली थीं, “दादा, यह तो इतना सुंदर है, इसे सदा अपने साथ रखूँगी।”
विवाह हुआ, नई बहू बनकर उमादेवी इस हवेली में आ गईं, कमर में सदा रहता यह चाबी का गुच्छा। इसकी छन-छन की आवाज़ सुनकर वे कितना ख़ुश होतीं! मगर यह ख़ुशी कुछ ही दिन के लिए ही थी। धीरे-धीरे यह आवाज़ उन्हें व्यस्त करने लगी। इसकी आवाज़ से सबको पता चल जाता था कि नई बहू कहाँ है… एक पल भी उन्हें अकेला नहीं रहने देती…। लेकिन करती भी तो क्या? घर भर की चाबियाँ ही मिली थीं उन्हें सासू-माँ से आशीष स्वरूप… क्या कर सकती थी? लेकिन सुदिप्तो के बाबा जाने कैसे समझ गए और शहर से एक हल्का सा चाबी का गुच्छा ले आए थे और तबसे ये यहीं रखा हुआ है।
मधुमिता ने पूछा, “माँ, आप इसका क्या करेंगी, किसे देंगीं।”
उमादेवी ने तीनों बहुओं को देखा; उनकी आँखों में अजीब सी लालसा थी उस चाबी के गुच्छे के लिए। उन्होंने तीनों को खाने की तैयारी में श्यामली की मदद करने को कहा। भले ही तीनों वहाँ से चली गईं, पर मन उनका उसी गुच्छे में ही अटक गया था। तीनों के मन में था कि माँ उसे ही दें।
मीनाक्षी ने सोचा, “मैं घर की बड़ी बहू हूँ, सारे घर की ज़िम्मेदारी मेरे कंधे पर है तो चाबियों का गुच्छा भी मुझे ही मिलना चाहिए।”
वहीं संध्या सोच रही थी, ”भले ही मैं घर की मँझली बहू हूँ पर घरभर की ज़िम्मेदारी तो दीदी से ज़्यादा मैं सँभालाती हूँ, तो वो चाबी का गुच्छा मुझे ही मिलना चाहिए।”
मधुमिता का मन भी यही सोच रहा था कि वो तो घर की छोटी बहू है, और माँ भी उसे कितना लाड़ करती हैं, तो चाबी का गुच्छा उसे ही देंगीं।
अगले दिन सुबह उमादेवी को तीन बार चाय दी गई, वो तो बहुओं का मन रखने को पी ली और नाश्ते भी तीन प्रकार के थे! वो भी थोड़ा-थोड़ा सब में से ले लिया। मगर दोपहर के खाने के लिए उन्होंने श्यामली को नाश्ते के समय ही कह दिया था ताकि तीनों बहुओं में फिर होड़ ना लग जाए। उमादेवी अच्छी तरह से समझ गयीं थीं कि यह होड़ उस चाँदी के चाबी के गुच्छे के लिए ही है। मन बहुत आहत हुआ उनका, अपनी बहुओं का ये रूप कभी नहीं देखा था, पर वो इस होड़ को बंद करने के उपाय सोच रही थीं। दोपहर के भोजन के बाद उमादेवी अपने कमरे में आराम कर रही थीं, अचानक कुछ सूझा और उन्होंने श्यामली को बुलाया और उसके साथ विश्वनाथ के घर चली गईं।
शाम को संध्या आरती के समय शुभेन्दू ने पूछा, “माँ, कहाँ चली गईं थीं आप?”
उमादेवी ने मुस्कराते हुए कहा, “मैं विशू के घर गई थी, अनिंदिता की शादी है तो मैंने उसे अपनी शादी का चाँदी का चाबियों का गुच्छा दे दिया।”
सुदिप्तो बोला, “बहुत अच्छा किया आपने, माँ, हम वैसे भी कोई ख़ास भेंट नहीं लाए थे, अनिंदिता बिटिया के लिए।”
उमादेवी के मुख पर एक असीम शांति थी और तीनों बहुओं के मुख पर लज्जा।
तीनों बहुएँ रोज़ की तरह उमादेवी के कमरे में चाय लेकर गईं और बोलीं, “माँ, हमें क्षमा कर दीजिए।" मगर उमादेवी ने उन्हें रोक कर कहा, “किस बात कि क्षमा, तुम तीनों मेरी बेटियाँ हो और मेरी बेटियों से कोई भूल नहीं हो सकती है। जल्दी चाय दो नहीं तो ठंडी हो जाएगी और चाय ठंडी हुई तो डाँट पड़ेगी, फिर कोई भी हो।” सब खिलखिलाहट कर हँस पड़ीं।
अगले दिन सुबह वापसी के समय फिर वही हँसी-ख़ुशी का माहौल था, साथ ही उमादेवी के मन में असीम शांति भी थी कि उन्होंने अपना घर बिखरने से बचा लिया था।
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