वो ज़रूर आएगा
कथा साहित्य | कहानी ज्योत्स्ना मिश्रा 'सना'15 Aug 2020 (अंक: 162, द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)
विनायक ने जैसे जीप से बाहर क़दम रखा, एक ज़ोरदार पत्थर उसके माथे पर लगा और ख़ून रिसने लगा। उसने इधर-उधर देखा, यह देखने कि यह पत्थर किस ओर से आया था। उसकी नज़र एक बूढ़ी औरत पर पड़ी, जो उसकी तरफ़ देख कर कह रही थी, "कहाँ है मेरा किशोर, बता कब आएगा वो।" तभी कुछ नौजवान आकर उस औरत को अपने साथ ले गए, और उसे पास के अस्पताल।
वहाँ उसके चोट पर पट्टी लगाई गई, डॉक्टर ने कहा, "ईश्वर की कृपा है पत्थर बस छू कर निकल गया, वरना टाँके लगाने पड़ते।"
विनायक अपने ग़ुस्से के रोक नहीं पाया और डॉक्टर से पूछ लिया, "आपके गाँव में लोगों का स्वागत ऐसे ही होता है क्या?"
डॉक्टर ने शांत स्वर में कहा है, "ऐसी बात नहीं है, वो तो बस अनू बुआ अपने इकलौते बेटे के जाने का ग़म सह नहीं पाई और ऐसी बावरी सी फिरती हैं। वैसे तो ठीक रहती हैं मगर किसी भी पुलिस वाले को देखती हैं तो भड़क उठती हैं।"
यह सुनकर विनायक की उत्सुकता बढ़ गई, उसने डॉक्टर से कहा, "ऐसा क्या हुआ था आपकी बुआ के बेटे के साथ ?"
डॉक्टर ने विनायक की तरफ़ देखते हुए कहा, "इंस्पेक्टर साहब, आप अभी तो आए हैं, ऊपर से चोट भी लगी है, अभी आप गेस्ट हाउस जाइए, आराम कीजिए, हम इस विषय पर फिर कभी बात करेंगे," यह कह कर डॉक्टर दूसरे मरीज़ों को देखने लग गए।
विनायक वहाँ से उठकर बाहर आ गया और अपनी जीप में बैठ गया। वह शहर में पला-बढ़ा था, गाँव के बारे में उसकी जानकारी केवल फ़िल्मकारों की देन तक ही सीमित थी। यह पहली बार था कि वह किसी गाँव में आया था और आते ही ऐसा स्वागत, उसका मन खिन्न हो गया था। उसने मन ही मन सोच लिया था कि वो अपना तबादला करवा लेगा। इसी सोच में जाने कब वह गेस्ट हाउस पहुँच गया। वहाँ के चौकीदार ने विनायक के माथे पर चोट देखी तो अनायास ही बोल पड़ा, "सा'ब जी आपकी भी मुलाक़ात हो गई अनू दी से?"
विनायक ने पूछा, "क्या तुम जानते हो उस बूढ़ी औरत को?"
चौकीदार बोला, "उन्हें कौन नहीं जानता है सा'ब, इस गाँव में छोटे-बड़े सब बहुत चाहते हैं उन्हें। यह तो किशोर की मौत सह नहीं पाई अनू दी, इसलिए ऐसी हो गई हैं।"
विनायक की उत्सुकता फिर ज़ोर मारने लगी, उसने चौकीदार से पूछा, "मुझे कुछ और बता सकते हो अपनी अनू दी के बारे में?"
चौकीदार बोला, "सा'ब जी, उनके बारे में सुनने बैठ गए तो रात भी गुज़र जाएगी, आप कुछ खा लीजिए, थोड़ा आराम कर लीजिए, हम फिर कभी बताएँगे उनके बारे में।"
विनायक को मगर चैन कहाँ था, उसे तो सब कुछ अभी ही जानना था, वो बोला, "तुम मेरी चिंता मत करो, ऐसा करो तुम मेरे लिए खाना लगाओ मैं तब तक नहा लेता हूँ, फिर तुम मुझे पूरी बात बताना।"
चौकीदार ने हामी भर दी और विनायक के लिए खाना लगाने चला गया। थोड़ी देर में विनायक आ गया, उसने फटाफट खाना ख़त्म किया और हाथ धोकर आरामकुर्सी पर बैठ गया, तब तक बरतन समेट कर चौकीदार भी आ गया, विनायक बोला, "अब बताओ कौन है यह तुम्हारी अनू दी और उनकी यह हालत कैसे हो गई।"
चौकीदार ने बताना शुरू किया, "यह जो अनू दी हैं, उनका नाम अनसूया चौधरी है, उनके बाप-दादा बड़े ज़मींदार हुआ करते थे। बड़े सज्जन लोग थे सा'ब, उस घर की इकलौती बेटी, तीन भाइयों की लाड़ली बहन। पिता और चाचा की तो जान बसती थी इनमें। जितनी रूपवती उतनी ही गुणवान। गाँव भर के लोगों का ख्याल रखती, मगर कहते हैं ना माँ-बाप जन्म दे सकते हैं मगर भाग्य नहीं लिख सकते हैं। बस भाग्य ही खराब था उनका। उनके पिताजी बड़े ज़मींदार जी के परम मित्र के बेटे के साथ ब्याह बचपन में ही तय हो गया था उनका, तो सही समय ब्याह करवा दिया। मगर दो हफ्ते भर ही ससुराल में रही थी वो कि हमेशा के लिए रिश्ता खत्म हो गया।"
विनायक अचानक बीच में ही बोल पड़ा, "क्यों उनके पति की मौत हो गई थी क्या?"
चौकीदार बोला, "पति के मरने का दुःख तो कोई औरत सह भी ले, लेकिन जो शहर में एक ब्याह करे और गाँव में एक; उसका क्या करें सा'ब?"
विनायक ने फिर पूछा, "अगर उसे किसी और से शादी करनी थी तो यहाँ मना कर देता।"
"कैसे करता सा'ब?" चौकीदार बोला, "उसके बाप के गुजर जाने के बाद, बड़े जमींदार जी के पैसों से पढ़-लिखकर शहर में बड़ा कलक्टर बना था, मना किस मुँह से करता।"
"ब्याह के दो हफ्ते बाद शहर वापस जाते बकत अनू दी के नाम एक चिट्ठी में अपनी पहली शादी के बारे में और कभी गाँव वापस नहीं आने का लिखकर चला गया हमेशा के लिए, अगले ही दिन अपने पिता के घर वापस आ गईं अनू दी।"
चौकीदार कहीं शून्य में देखता हुआ बोले जा रहा था, "कितना समझाया था सब ने, दूसरा ब्याह कर ले, बारहवीं तक पढ़ी है, देखने में भी स्वर्ग की अप्सरा से कम नहीं थी, ऊँचा घराना, कमी क्या थी?"
"मगर उन्होंने मना कर दिया, कहने लगीं, मैं कोई खाने का थाल हूँ, जो एक के खाने के बाद धोकर दूसरे के लिए सजा दिया।"
विनायक सोचने लगा, ’शहरों में नारी के समान अधिकार के लिए कितने आंदोलन आए दिन होते हैं, मगर नारी का आत्मसम्मान तो यह है।’
चौकीदार आगे बोला, "कुछ ही दिनों में पता चला वो माँ बनने वाली हैं, उनको तो जैसे जीने की वजह मिल गई थी। गाँव के छोटे से स्कूल में नौकरी करने लगी, साथ ही आगे की पढ़ाई भी करने लगी थी। घर में कोई नौकरी के लिए मना करते तो कहती बच्चों में मन लग जाता है। सही समय पर चाँद जैसे बेटे को जनम दिया, अब तो और व्यस्त रहने लगी थी, धीरे-धीरे समय गुजरने लगा।
“कुछ ही समय में भाइयों का ब्याह हुआ तो घर पर बैठी ननंद भाभियों के आँखों में चुभने लगी, तो अनू दी ने स्कूल के पास एक छोटा सा घर ले लिया, वहीं अपने बेटे के साथ रहने लगी। स्कूल से जो कमाई होती उससे ही दोनों माँ-बेटे गुजारा कर लेते। भाइयों से कोई मदद नहीं लेती, पिता या भाई कुछ कहते तो यह कहकर टाल देती कि जरूरत पड़ेगी तो खुद माँग लेगी । मगर वो दिन कभी नहीं आया।”
तभी बीच में विनायक बोल पड़ा, "और उनका बेटा, क्या नाम था उसका?"
चौकीदार बोला, "सा'ब जी, किशोर… बड़ा ही होनहार बच्चा था, देखने में किसी राजकुमार की तरह था, व्यवहार में माँ की तरह ही था और पढ़ने में इतना तेज कि क्या बताएँ?
"उनका छोटा सा घर आज भी उसके इनामों से भरा पड़ा है,” चौकीदार अपनी रौ में बोले जा रहा था। "पढ़-लिखकर डाक्टर बना था, चाहता तो शहर में रहकर बहुत पैसा कमाता। मगर अनू दी के संस्कार नहीं भूला था वो, यहीं गाँव में रहकर अस्पताल में काम करता और गाँव वालों की सेवा करता, सबकी आँखों का तारा था।"
"उसकी मौत कैसे हुई?" विनायक फिर बीच में बोल पड़ा।
बड़े दुखी मन से चौकिदार बोला, "क्या बताएँ सा'ब जी, पिछले साल ये जो जानलेवा बिमारी आई थी, क्या तो नाम था उसका... हाँ, कोरोना… उसी के इलाज में दिन रात एक कर दिया था उसने। चार महीने हो गए थे लगातार मरीजों की देखभाल करते-करते। एक दिन उसकी तबीयत बिगड़ गई, तो वो आराम करने घर आ गया था। जाँच से पता चला उसे भी यह बीमारी हो गई है, तो कुछ पुलिस वाले आकर उसे क्वारांटाइन सेंटर ले गए।"
"फिर क्या हुआ?" विनायक ने पूछा ।
"सुना है वहीं इस बीमारी से गुजर गया," बड़े ही दुखी होते हुए चौकीदार बोला। "और जब यह बात अनू दी को पता चली तो वो यह बात सह नहीं पाई, उन्हें अभी तक लगता है पुलिस वाले ले गए हैं उनके बेटे को, और वही लौटा कर लाएँगे।"
विनायक सोचने लगा, ’इस बीमारी ने जाने कितने लोगों से कितना कुछ छीन लिया है, किसी के सिर से साया छीन लिया तो किसी के माँग का सिंदूर, कहीं राखी उजड़ गई तो कहीं किसी का एक ही सहारा, जाने कितने कोरोना योद्धा गुमनाम ही शहीद हो गए।’
अचानक उसने हाथ जोड़ लिए मानो नमन कर रहा हो उन शहीदों को।
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