आख़िरी बरसात
काव्य साहित्य | कविता सौरभ मिश्रा1 Sep 2020 (अंक: 163, प्रथम, 2020 में प्रकाशित)
आज की बरसात में
तन धुल गया, मन धुल गया
बूँद बादल से गिरी
और भेद सारा खुल गया
था पड़ा एकांत, अब
ग्राम-नगर कुल घूमता
वेदना की लहर में
सब दुःख मिल-जुल गया
आज भीगी ख़ूब मैं
आज रोयी भी बहुत
आँसू गिरे उनके चरण पे
अवसाद सारा घुल गया
आज की बरसात में
तन धुल गया, मन धुल गया
उफान अब नदियों में है
तूफ़ान का रुख़ कुछ बना
देखो व्यथा में ज़ोर कितना
हर कण ही कुछ हिल-डुल गया
ओले भी कुछ-कुछ आ गिरे
जैसे कि घी हो आग में
भभकी चिता हो ज़ोर से
और घाव सारा छिल गया
अब लेके मलहम वो उठा है
नाज़ से जो बेरहम था
होंठ पर धर विष
मेरे होंठ पर वो घुल गया
आज की बरसात में
तन धुल गया, मन धुल गया
अब उठी है आश मुझमें
जबकि ढलने जा रही हूँ
कंठ बेस्वर हो चुका
उनके नाम पे यह हिल गया
फिर किस जनम में मेल हो
फिर कैसा अवसान हो
देख विषम यह आँकड़े
विज्ञान सारा हिल गया
मैं कि मूँदूँ पलक,पहले
पुतलियों में आ बसो
छोड़ यह संसार
अब संसार सारा खुल गया
आज की बरसात में
तन धुल गया, मन धुल गया।
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