अब्बा - तीन कविताएँ
काव्य साहित्य | कविता अख़तर अली28 Jan 2012
एक
अब्बा को मैंने जीवन भर
उपन्यास की तरह पढ़ा
आज जब अब्बा नही रहे तब
अहसास हो रहा है कि वो तो
कविता थे ।
दो
बचपन में जब अब्बा बोलते थे
तो लगता था डाँट रहे है
अब समझ में आया कि वो तो
जीवन का गीत गा रहे थे।
तीन
अब्बा का न होना
अब्बा के होने से ज़्यादा
मज़बूत है
पहले अब्बा बस
आगे वाले कमरे में
पलंग पर लेटे हुए होते थे,
अब पूरे घर में नज़र आते हैं
कभी सीढ़ी उतरते हुए
कभी पानी चढ़ाते हुए
कभी लगता है
सोई में सब्ज़ी से भरा थैला
खाली कर रहे हैं
तो कभी लगता है
मोटा चश्मा पहने
अखबार पढ़ रहे हैं
क्रिकेट के दीवाने थे अब्बा
बंद टीवी देखो तो लगता है
ये चालू है और इस पर
मैच आ रहा है
तेंदुलकर का हर शॉट
अब्बा को जीवित कर देता है/
मृत्यु तो बस अब्बा का शरीर ले जा सकी है
अब्बा तो यहीं हैं
हाँ अब उनका ठिकाना बदल गया है
पहले अब्बा घर में रहते थे
अब मेरी स्मृति में रहते है
यही अब्बा का स्थायी पता है।
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