अजीब बात
काव्य साहित्य | कविता पाराशर गौड़30 Aug 2007
है ना -
कितनी अजीब सी बात
कि, मैं. . .
आदमी न होकर सुअर हो गया हूँ।
जहाँ कहीं, जब कभी
जिस किसी के अन्दर झाँक कर
मुँह डालकर,
उसके अंदर में समाये विश्वास
और अविश्वास के कीचड़ को
बाहर निकालकर, दुनिया पर फेंकता हूँ
वो, देख रहे हैं
और मैं, देखा रहा हूँ. . .
है ना. . .
मेरी फ़ितरत बन गई है
जिस किसी पर घुर्राना
बात बात पर लाँछन लगाना
दूसरों को नंगा करना और
नंगा देखना -
लेकिन, ये काम तो
सुअरों का होता है आदमी का नहीं. . .
वही तो, मैं कर रह हूँ,
इस चक्कर में मैं, स्वयं कई बार
जनता के कटघरे में खड़ा हो गया हूँ. . .
है ना. . .
सुअर का काम है
अपने आस पास, और पास पड़ोस को
गन्दा करना और करवाना
वही तो कर रहा हूँ
अपने घर का गन्द अब
दूसरों के घरों में डाल रहा हूँ
पहले चुपके चुपके करता था
अब सरेआम करता हूँ
जिसको जो करना है कर ले
जिसको जो उखाड़ना है, उखाड़ले
पहले मैं पालतू था
अब तो जंगली हो गया हूँ. . .
है ना. . .
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