अंधे की लाठी
काव्य साहित्य | कविता धीरज श्रीवास्तव ’धीरज’15 Nov 2019
(1)
वो अंधा था
कपड़े फटे-चिथड़े थे
पैरों में बिवाइयाँ थीं
फिर भी चेहरे पर
एक मुस्कान थी।
देख रही थीं अंधी आँखें
इधर-उधर, नाचती हुई
चाल में उसके तेज़ी थी
गुनगुना रहे थे उसके होंठ।
हाथ में थी एक लाठी
जिसे एक छः साल के
बच्चे ने पकड़ रखा था
बच्चे के चेहरे पर थी
एक मुस्कान
मासूम-सी, भोली-सी।
वो लोगों को देखते हुए
आँखें नचाते हुए
मुस्कुरा रहा था
और अपने मासूम चेहरे से
पूछ रहा था एक सवालः
मुझे खेलने की आज़ादी नहीं है?
मुझे पढ़ने की आज़ादी नहीं है?
खेलते-पढ़ते हैं जैसे बच्चे
क्या मैं बड़ा हो गया हूँ?
छोड़ जाता है एक सवाल
और उछलता-कूदता हुआ
आगे बढ़ जाता है
उसकी नाचती हुई आँखें
उसका मासूम चेहरा
करते हैं हम सबसे
सवाल
जो परछाई की तरह
हमारा पीछा करती हैं।
(2)
बूढ़े का हाथ
बच्चे के कंधे पर है
बच्चे के हाथ में है
एक लाठी
जिसका सिरा
बूढ़े ने पकड़ रखा है
बच्चा
अपने नन्हें क़दमों से
डगमगाते हुए चल रहा है
कभी-कभी उछलने लगता है
देखकर किसी बच्चे को
बूढ़ा लड़खड़ा जाता है
बूढ़े को लड़खड़ाते देख
वो ठिठकता है
देखता है वो बेबसी से
अपने अंधे बाप को
फिर वो कछुए की तरह
चलने लगता है।
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