अंतरद्वन्द्व
काव्य साहित्य | कविता उमेन्द्र निराला15 Oct 2025 (अंक: 286, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
चराग़ भी अपनों से लड़ता है,
कभी आँधी, तो कभी तूफ़ान से लड़ता है।
अँधेरे को इस क़दर मान बैठा अपना,
जुगनुओं को पालने का शौक़ रखता है।
जो रूबरू है ज़िन्दगी की असलियत से,
जीती हुई बाज़ी हार कर भी हँसता है।
सोचता रहा बंदिशों में फँसकर वो नादान,
सोच नाज़ुक सी, मगर साज़िश गहरी रचता है।
शहर में भीड़ के क़िस्से बहुत हैं मगर,
मन की तह में बैठा, ख़ुद को तन्हा समझता है।
हौसला देकर लौटा था जो औरों को,
अपनों की मुसीबत में ख़ुद हार जाता है।
आएगा मलाल जब दहलीज़ पर,
देखा जाएगा— कौन आँसू पोछकर अपना बताता है।
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