न्याय
काव्य साहित्य | कविता उमेन्द्र निराला15 Oct 2025 (अंक: 286, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
गुनाह कर सर उठाये बोलता है,
गीता कि क़सम खाकर न्याय तौलता है।
अपने गुनाहों में डाल पर्दा खड़ा हुआ है,
शातिर सा औरों के राज़ खोलता है।
नागों सा विष भरा है, उसमेंं
कशमकश भय में देखो प्रेम घोलता है।
खड़ा है, झूठ और सच के तह में
नुमाइश ऐसी है कि बेख़ौफ़ डोलता है।
सच कि बुनियादें ख़िलाफ़ है, उसके
फिर भी वह झूठ हर बार बोलता है।
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