भारतीय वेष का गौरव—साड़ी
संस्मरण | स्मृति लेख शकुन्तला बहादुर1 Jul 2024 (अंक: 256, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
ये घटना वर्ष १९६३ की है, जब मैं जर्मन गवर्मेंट की फ़ेलोशिप पर जर्मनी के ट्यबिंगेन शहर में शोधकार्य के साथ ही विदेशी छात्रों को सप्ताह में दो दिन हिन्दी एवं संस्कृत पढ़ाया करती थी।
एक दिन जब मैं अपने इंस्टीट्यूट से घर वापस आई तो एक जर्मन महिला को प्रतीक्षा करते पाया। उसने मुझसे एक दिन के लिये एक साड़ी माँगी और पहिनने की विधि भी सीखी। वह एक फ़ैंसी ड्रेस में भारतीय महिला बन रही थी। मैंने उससे पूछा कि वह साड़ी पहिन कर क्या करेगी? उसने कहा, “एक कटोरा लेकर मैं प्रवेश द्वार पर खड़ी हो जाऊँगी।”
मैंने कहा, “यदि भारत को भिखारी के रूप में प्रस्तुत करोगी तो मैं साड़ी नहीं दूँगी।”
उसने पूछा कि फिर वह क्या करे? मैंने कहा कि नमस्कार मुद्रा में हाथ जोड़ कर स्वागत करो या नृत्य की मुद्रा में खड़ी रहो। उसे मैंने एक मुद्रा भी बता दी। उसने मेरी बात मान ली और साड़ी लेकर ख़ुश होकर चली गयी।
दो दिन बाद वह साड़ी वापस करने आई। तो मैंने वह साड़ी उसी को भेंट रूप में दे दी। मुझसे उसने साड़ी का मूल्य पूछा। मेरे मना करने पर वह दूसरे दिन ‘कुकिंग ग्लास’ के दो सुन्दर और उपयोगी पैन लाकर मुझे दे गयी। कहने लगी—साड़ी मुझे तुम्हारी याद दिलाएगी और जब तुम इस बरतन में कुक करोगी तो मुझे भी याद कर लेना।
आज साठ वर्षों से अधिक समय हो जाने पर भी वह ग्लास पैन मेरे पास है, मैं उसके भारत-प्रेम को याद करके हर्षित और गर्वित होती हूँ।
दिन बीत जाते हैं सुहानी यादें बन कर।
यादें रह जाती हैं कहानी बन कर॥
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
राजनन्दन सिंह 2024/07/05 07:34 AM
सुंदर स्मरण
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
स्मृति लेख
सांस्कृतिक आलेख
किशोर साहित्य कविता
बाल साहित्य कविता
सामाजिक आलेख
ललित निबन्ध
लोक गीत
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
Anakshi Khare 2024/12/30 09:20 AM
Ati sunder