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चाक्षुष सुख का आनंद दिलाती ‘इलाहाबाद ब्लूज’ पुस्तक

पुस्तक: इलाहाबाद ब्लूज
लेखक: अंजनी कुमार पांडेय
प्रकाशक: हिंदयुग्म प्रकाशन
मूल्य: ₹125/-
पृष्ठ संख्या: 132

“इलाहाबाद एक शहर नहीं, बल्कि एक रोमांटिक कविता है, एक जीवन शैली है, एक दर्शन है।” ‘इलाहाबाद ब्लूज’ पुस्तक की पहली पंक्तियाँ विश्व भर का ध्यान खींचने बाले नगर इलाहाबाद जो अब प्रयागराज के नाम से पुकारा जा रहा है के अंतस में धड़कते दिल की दास्तान को चाक्षुष सुख प्रदान करने बाली शैली में अंजनी कुमार पांडेय ने ठेठ इलाहाबादी अंदाज़ में लिखा है। इलाहाबाद की विविधता, समरसता और सद्‌भाव को वही जान सकता है जिसने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई की है। पढ़ लिखकर कहीं भी चला जाए, किसी भी पद पर पहुँच जाए पर इलाहाबाद के ब्लूज़ कभी ख़त्म नहीं होते हैं। अपने दिल में गहरे समा चुके इलाहाबाद को अंजनी कुमार पांडेय ने अपनी किताब ‘इलाहाबाद ब्लूज’ में अपने अन्दर रचे बसे बचपन से लेकर शिक्षाकाल के इलाहाबाद को अपने संवेदना के सागर में गोते लगवाकर सुविस्तृत नयनाभिराम रूप में प्रस्तुत किया है। सन् 1500 की शताब्दी में मुस्लिम राजा द्वारा इस शहर का नाम प्रयागराज से बदलकर इलाहाबाद किया था जिसे सन् अक्टूबर 2018 में तत्कालीन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने वापस बदलकर प्रयागराज कर दिया। चौकए कटरा पुराना शहर जो शहर का आर्थिक केन्द्र रहा है, यहाँ के क़िस्से, क़िस्सागोई अंदाज़ में गतिमान भाषा के प्रवाही रूप में उकेर कर चाक्षुष सुख प्रदान करते हैं। सिविल लाइन के काफ़ी हाउस का इडली-डोसा, विश्वविद्यालय की आत्मा यूनिवर्सिटी रोड, बकइती का अड्डा ठाकुर की दुकान। हर इलाहाबादी का इंतज़ार माघ मेला। मनोकामना मंदिर के महादेव। संगम तट पर लेटे हुए हनुमान जी। गौतम-संगीत-दर्पण सिनेमा। लक्ष्मी टाकीज से होते आनन्द भवन, रानी महल, आल सेण्ट्स कैथेड्रिल चर्च 1879 में बन कर तैयार हुए इस चर्च का नक़्शा सुप्रसिद्ध अँग्रेज़ वास्तुविद विलियन इमरसन ने बनवाया था प्रकट होता है। भाषा की जादुई चाशनी में लबरेज़ ये किताब बताती है लेडीज़ सैंडल के आकार के यमुना पुल की कहानी, डीबीसी यानी दाल-भात-चोखा के मायने को जिसके बिना सब कुछ अधूरा है। अंजनी कुमार पांडेय अपने किशोरवय की ओर बढ़ते क़दमों में उमड़ते घुमड़ते प्रेमांकुर को लिखते हैं, “मुझे उसकी और उसे मेरी आदत पड़ गई थी। मैं उसका इंतज़ार था और वह मेरी चाहत। वह चमकती थी गुलाब की पंखुड़ियों की तरह और मैं फरफराता था अमलतास के फूलों जैसा।” इलाहाबाद से कहानी पहुँचती है दिल्ली, जहाँ सिविल सर्विसेज़ की तैयारी और संघर्ष की दास्तान है। जहाँ पहली बार ‘कमीना’ शब्द को चरितार्थ करने वाले प्रॉपर्टी के दलाल और मकान मालिक से भेंट हुई। मध्यांतर के बाद कहानी फ़्लैश बैक में पहुँचती है। इस हिस्से में भावुक संस्मरण हैं जो अनायास ही आँखें नम कर देते हैं। विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी, टिनशेड के नीचे साइकिल स्टैंड से लेकर गेट के बाहर ठेले पर बिकने वाला भीगा चना, मिठाई से लेकर कारिस्तानियों को अनूठे ढंग से सरल और सहज रूप से लिखा है। ‘इलाहाबाद ब्लूज’ 132 पेज की किताब में गागर में सागर भरने का उपक्रम-सा लगता है क्योंकि बहुत कुछ छूट जाता है। ‘इलाहाबाद ब्लूज’ नामक यह किताब एक मध्यमवर्गीय नौजवान की संघर्ष गाथा है बाद में भारतीय राजस्व सेवा का अधिकारी बन कर भी अपने अतीत के गौरवशाली नगर की गाथा को सुनाने के लिए मचल रहा है। कविता की तरह व्यक्त होते शहर इलाहाबाद की बातें एक जीवन शैली के क़िस्से हैं जो आधुनिकता के दौर में तिरोहित हो रहे हैं, ‘इलाहाबाद ब्लूज’ ने उन्हें पुर्नस्थापित किया है। 

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