कराहती नदियाँ किससे करें पुकार!
आलेख | सामाजिक आलेख सुरेन्द्र अग्निहोत्री15 Jul 2024 (अंक: 257, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
पवित्र जीवनदायनी नदियाँ कराह रही हैं, कूड़ाघर बनने को मजबूर हैं।
कुकरैल नदी की तरह सब नदियों को भागीरथ मिलेगा? गंगा, यमुना, घाघरा, बेतवा, सरयू, गोमती, काली, आमी, राप्ती, केन, मंदाकिनी आदि नदियों के सामने अपने आप को बनाये रखने की चिंता खड़ी हो गयी है। बालू के नाम पर नदियों के तट पर क़ब्ज़ा जमा बैठे माफ़ियाओं और उद्योगों ने नदियों की सुरम्यता को अशांत कर दिया! अशांत इसलिये क्योंकि प्रदूषण फैलाने वाले और पर्यावरण को नष्ट करने वाले अपराधियों का बोलबाला है। जलस्रोत पाटकर माफ़िया दिन रात लूट के खेल में लगे हुए है। नदियों के साथ छेड़छाड़ और अपने स्वार्थों के लिये नदियों को समाप्त करने की साज़िश निरंतर चल रही है।
गंगा पर एक्सप्रेस-वे से गंगा नदी के इर्द-गिर्द रहने वाले 50 हज़ार से ज़्यादा दुर्लभ पशु पक्षियों के समाप्त हो जाने का ख़तरा है। नदी को देवी और माँ के रूप में दर्जा देने वाले गंगा और यमुना के मैदानी भागों में माफ़ियाओं और सत्ताधीशों की जुगलबन्दी का ख़ौफ़नाक मंज़र साफ़ दिख रहा है। नदियों के मुहाने और नदियों के पाट स्वार्थों की बलिवेदी पर नीलाम हो रहे हैं। अत्यधिक रेत खनन के चलते जल जीवों के सामने संकट मँडरा रहा हैं। गंगा की औसत गहराई जहाँ 2004-2005 में 12 मीटर थी वह 10 वर्ष पहले 2024-2025 में 10 मीटर रह गयी है। वर्तमान समय में जलस्तर में गिरावट जारी है। आईआईटी कानपुर के एक शोध पत्र में स्पष्ट बताया गया है कि पूरे प्रवाह में गंगा क़रीब चार मीटर उथली हो चुकी है। गाद सिल्ट के बोझ से बांधों की आयु घटती जा रही है। जीवनदायनी और सदा नीरा गंगा कानपुर के पास दशक भर पूर्व 15 से 20 मीटर गहरी थी जबकि पहाड़ी इलाक़ों में इसकी गहराई मात्र चार मीटर ही गहरी थी। जलवायु वेत्ता परमेश्वर सिंह अपनी किताब पर्यावरण के राष्ट्रीय आयाम में नदियों के घटते दायरे पर चिंता जता चुके हैं। वह कहते हैं—बात केवल गंगा तक ही सीमित नहीं है। गत एक दशक में बूढ़ी गंडक 6 से 4 मीटर, घाघरा 6 से 4 मीटर, बागमती 5 से 3 मीटर, राप्ती 4से 5 एवं यमुना की औसत गहराई इन वर्षों के अंतराल में 3.5 से दो मीटर तक कम हो चुकी है।
नदियों का पानी पीने लायक़ तक नहीं बचा है। कभी बेतवा नदी का पानी इतना साफ़ व स्वास्थ्यवर्धक रहता था कि टीबी के मरीज़ भी इस जल का सेवन कर स्वस्थ हो जाते थे। आज बेतवा नदी के किनारे की बस्ती के लोग उसमें गंदगी डाल रहे हैं। पानी बहुत प्रदूषित हुआ है। यमुना नदी में पुराना यमुना घाट से लेकर यमुना पुल तक नदियों में शव, गंदगी फेंकी और बहायी जाती है। हमीरपुर का पानी पुराने यमुना घाट में नाले के ज़रिए यमुना नदी में डाला जा रहा है।
डुमरियागंज से निकली आमी नदी, सरयू नदी, काली नदी का बुरा हाल है। किसानों की सूखती फ़सलों को इन नदियों से पानी मिलता था खेत लहलहा उठते थें। मछलियाँ, कीड़े मकोड़े सभी ख़ूब अठखेलियाँ करते थे। जलीय पौधे भी स्वस्थ रहते थे। लेकिन सब दिन एक जैसे नहीं होते। आज ख़ुद को नदियाँ देखती हैं तो हूक सी उठती है। लेकिन सुना है कि मोक्षदायिनी माँ गंगा भी मैली होती जा रही है। हे राम! मैं तो आख़िरी साँसें गिन ही रही हूँ। मेरे साथ जो सुलूक किया, वो कम से कम मोक्षदायिनी गंगा मईया के साथ मत करना। यही मेरी अंतिम इच्छा है। क्या पूरी करेंगे आप सब? गंगा में गिरने वाले नालों को पूरी तरह रोकने तथा सीवरेज के ट्रीटमेंट का भरोसा करने पर यह सवाल भी उठना लाज़िमी है। गंगा तट पर वाराणसी समेत 116 शहर बसे हैं जिनकी आबादी एक लाख से ज़्यादा है। इन शहर के नालों से गिरने वाली गंदगी ही गंगा के 95 फ़ीसदी प्रदूषण का कारण है।
मतवाले मानसून के बल पर सदानीरा बनने वाली नदियाँ वर्षा के बूँदों को अपने आँचल में छुपाकर एक लम्बी यात्रा के साथ हमारे होंठों को तरलता देकर जीवन चक्र को गतिमान करती हैं। प्रकृति के इस विराट खेल का अंदाज़ा इसी बात से चल जाता है कि भारत के पश्चिमी तट पर क़रीब 75 अरब टन जल बरसता है। भारत का मैदानी इलाक़ा 15 लाख किमी के क्षेत्र में फैला है। इस क्षेत्र में 1.7 सेमी औसत दैनिक वर्षा का अर्थ हुआ कि पश्चिमी तट से भारत में प्रवेश करने वाला वाष्प का एक तिहाई भाग जल में परिवर्तित होता है। ‘जल है तो कल है’ का नारा लगाने वाले, भारतीय मानसून नामक अरबी शब्द से अपनी सारी आशा आकांक्षायें और आंशकायें प्रकट करते हैं। इस एक शब्द ने सदियाँ से इस भूखण्ड के लोगों को इतना प्रभावित किया है कि हमारी जीवन शैली और संस्कृति मानसून और नदियों के इर्द-गिर्द सिमट गयी है। गंगा और यमुना का मैदानी भाग दुनिया का सबसे उपजाऊ क्षेत्र माना जाता है। लेकिन अब गंगा ही नहीं बेतवा, केन, शहजाद, सजनाम, जामुनी, बढ़ार, बंडई, मन्दाकिनी, नारायन जैसी अनेक छोटी बड़ी बुन्देलखण्ड में बहने वाली नदियों पर संकट खड़ा हो गया है। जिस शहजाद नदी का डॉ. हरवंश राय बच्चन ने कैम्ब्रिज में पढ़ते हुए याद किया। आज ललितपुर के बीच शहर से निकलने वाली शहजाद नदी का हाल बेहाल है। प्रदूषण की शिकार इस नदी को लोगों ने अपना आशियाने के रूप में इस्तेमाल करने के लिये आधे से अधिक जगह में पाट दिया है। यही हाल कुछ-कुछ इससे मिलने वाले नालों का है। सरकारी के तंत्र के सहारे नालों पर आलीशान महल खड़े हो गये। कराहती नदियाँ अपनी पीड़ा कहें तो किससे कहें? कौन सुनेगा नदी की अकाल मृत्यु की शोक गाथा! कौन मनायेगा मातम! क्या जब सब कुछ चुक जायेगा, तब हमें याद आयेगा!
एक नदी थी, जो देती थी हमें जीवन दान,
जिससे उपजता था हमारा अन्न धान,
हमने किया व्यवधान, ख़त्म हो गये नदी के प्राण।
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