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कल्याणी कथा संग्रहः मानव जीवन को उत्कर्ष बनाने की आकांक्षाओं वाला अनुपम कथा संग्रह

समीक्षित पुस्तक: कल्याणी (कथा संग्रह) 
लेखकः मुक्तिनाथ झा
प्रकाशक: शतरंग प्रकाशन, एस-43 विकासदीप, स्टेशन रोड, लखनऊ-226001
पृष्ठ संख्याः192
मूल्यः 400 रुपये

शतरंग प्रकाशन द्वारा प्रकाशित मुक्तिनाथ झा का कल्याणी कथा संग्रह में बारह कहानियाँ संकलित हैं। मुक्तिनाथ झा की अधिकांश कहानियाँ गाँव की पारंपरिक परम्परा के बीच धार्मिक आख्यानों और चरित्रों को सहकार कर मानव जीवन को उत्कर्ष बनाने की आकांक्षाओं को रेखांकित करने वाला एक अनुपम कथा संग्रह है। इस कथा संग्रह में लेखक हमेशा की तरह उड़ान भरता-सा एक नए युवक के रूप में पुराने क्लासिकल धार्मिक संदर्भों की गंध में लिपटा, लेकिन उसका नवीनीकरण करता, अपने लक्ष्य को साधने के लिए क़िस्सागोई प्रवृत्ति से परिपूर्ण दिखाई देता है। मुक्तिनाथ झा की कहानी पहलवान की ‘पाँचवी ललकार’ पढ़ने पर एक अद्भुत चाक्षुष सुख देने वाला पहलवान का चित्र उभर कर आता है जो अपनी संपूर्ण जीवन अपने आदर्श की संरचनाओं के लिए मूर्त करने के लिए लगा देता है, जहाँ स्वयं को ही भूल जाता है। भतीजे का लालन पालन बेहद संजीदगी के साथ विशेषताओं और उपलब्धियों से परिपूर्ण करने में अपना जीवन समर्पित कर देता है। लेकिन जीवन के अंतिम क्षणों में ख़ुदग़र्ज़ी के हुजूम में मिले उपेक्षा और परिहास पर पहलवान के मन उपजी तल्ख़ी चीत्कार बनकर पाँचवीं ललकार के रूप में प्रकट होती है तो चमत्कृत कर देती है। इस कहानी का ध्येय कथ्य शैली की सारी बनी बनाई ज़मीन से मुक्त स्वतंत्र होने के कारण महत्त्वपूर्ण है। इस कहानी के साथ इस कथा संग्रह की दूसरी कहानी ‘बीजोरानी का टीला’ आम जीवन और ग्रामीण जीवन की जद्दोजेहद के बीच प्रेम और करुणा को रेखांकित प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती है। वस्तुतः इस कहानी के माध्यम से लेखक ने यह बताना चाहा है कि, इन्सान जीवन में ज्यों-ज्यों दैवी-दण्ड पाता है, त्यों-त्यों वह मानवतावादी बनता जाता है। 

एक अन्य कहानी ‘कपोत दम्पत्ति’ वीभत्स त्रासदी पर आधारित है, किन्तु इसका अंत सुखद एवं आशापूर्ण है। 

पत्रों के स्तर पर मुक्तिनाथ झा अपने कथ्य-सृजन में काफ़ी संयम दिखाते हैं। उनके यहाँ पात्रों के सहारे संपूर्ण कथानक का संघटन तैयार करते हैं। 

इस प्रकार संपूर्ण कथानक कहानी तत्व के भावपक्षीय सभी वैशिष्ट्यों के प्रति वर्णतः खरा उतरता है। ‘पिता’ कहानी एक बँधी-बँधायी परिपाटी पर आगे बढ़ती है। यद्यपि कि बीच-बीच में मुक्तिनाथ झा ने अपने मनोभावों के उद्गार हेतु अवकाश की पूर्ण गुँजाइश भी रखी है। 

भाव चाहे जितने गहाराई लिए हों, तीव्र उत्कट हों, मर्म को भेदने वाले हों, किन्तु यदि उनका प्रकटीकरण सम्यक् दृष्टिकोण से न हो तो सब व्यर्थ है। वस्तुतः भावों का प्रकटीकरण जिन उपादानों के माध्यम से होता है, वे सब शिल्प-विधान के अन्तर्गत आते हैं। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है। काव्यात्मक शिल्प-विधान कहानियों में घुसपैठ कर चुके हैं। इस संदर्भ में नामवर सिंह की चिंता उचित प्रतीत होती है। उनकी मूल चिंता कहानी की ‘क़िस्सागोई शैली’ की रक्षा को लेकर है। जहाँ तक कहानीकार मुक्तिनाथ झा का सवाल है तो उन्होंने शिल्प विधान में विशेष मौलिकता दिखाने के बजाय उत्कृष्टता पर विशेष बल दिया है। वस्तुतः लेखक ने ‘क़िस्सागोई’ शैली को पूर्णता निर्वहन करने की कोशिश की है। 
‘पेंशन’ कहानी अपने शिल्पगत प्रयोगों को लेकर भी पूर्णतः सार्थक रचना है। मुक्तिनाथ झा ने अपनी स्वाभाविक शैली में ही इसका भी शिल्प रचा है। भाषा बिल्कुल सहज, सरल, एवं भावमय है। शैली में वातावरण के अनुसार काफ़ी विविधता आती गयी है। 

लेखक के लिए साफ़ सुथरा एवं त्रुटिहीन व सरल तथा सहज शिल्प ही अभीष्ट है। अपनी इन्हीं मान्यताओं के आधार पर लेखक मुक्तिनाथ झा ने भाषा का अत्यंत सहज स्वरूप चुना। 

‘अमृत संवाद’ में कथोपकथन भी कहानी में बेजोड़ हैं। छोटे-छोटे वाक्यों में पात्रों द्वारा आपसी वार्तालाप बिल्कुल जीवंत प्रतीत होता है। 
‘मिथ्या’ कहानी का शिल्प भी मुक्तिनाथ झा जी साधारण से परंपरागत स्वरूप में ही निर्मित करते हैं। भाषा का प्रयोग एकदम अपने चिर-परिचित अंदाज़ में हुआ है। ग्राम्य-अँचल के परिवेश में भी भाषा का शुद्ध खड़ी बोली का स्वरूप हुआ है। यह अलग बात है कि आंचलिक परिवेश में प्रचलित कुछ शब्द अपने देशज स्वरूप में ही प्रयोग किए गए हैं। 

— सुरेन्द्र अग्निहोत्री 
sagnihotri1966@gmail.com

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