अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

कोविड

हमारा तो निकल गया रोना। 
जब पता चला कि पड़ोसी को हो गया है कोरोना। 
रात के अँधेरे में, सुबह और सवेरे में। 
हम भी आ गए, शक के घेरे में। 
 
हमने सबको यक़ीन दिलाया। 
कि हम हैं सोबर और सुशील। 
फिर भी करम जलों ने। 
कर दिया हमारा घर सील। 
 
हम इस बात से थे दुखी। 
तभी पत्नी पास आके रुकी। 
बोली घर में ख़त्म हो गया है राशन। 
हमने कहा देवी बंद करो यह भाषण। 
 
पत्नी को नहीं पसंद आया हमारी टोन। 
उठा के तोड़ दिया हमारा मोबाइल फ़ोन। 
ग़ुस्से में उसका चेहरा हो गया लाल पीला। 
पता नहीं, ग़रीबी में ही क्यों होता है आटा गीला। 
 
अब हमें पत्नी के हुक्म का पालन करना था। 
घर के लिए राशन का इंतज़ाम करना था। 
हमने अपनी इज़्ज़त खूँटी पे टाँगी। 
खिड़की से चिल्ला चिल्ला के सबसे मदद माँगी। 
 
कोई नहीं आया। 
 
जो भी कहते थे कि हम भगवान के दूत हैं। 
बिना देखे ऐसे निकल गए जैसे हम कोई भूत हैं। 
आख़िर एक बूढ़ा चौक़ीदार आया। 
उसने घर के बाहर एक बोर्ड लगाया। 
 
बोर्ड पे लिखा था, 
साहब वैसे तो जेंटल हैं। 
लॉकडाउन में हो गए मेंटल हैं। 
इफ़ यू हीयर शोर, प्लीज़ इग्नोर। 
 
हमने कहा, 
भैया, आ रहा है मज़ा। 
दूसरे के कर्मों की हमको दे के सज़ा। 
 
वो बोला बाबूजी, 
लाखों रोज़गार छोड़ कर चले गए घर। 
हज़ारों बिना इलाज के कर रहे हैं सफ़्फ़र। 
सैकड़ों रोज़ करते हैं भूख से लड़ाई। 
वो सब भी इसी बात की दे रहे हैं दुहाई। 
आख़िर किसकी ग़लती की सजा हमने है पाई। 
 
बुरा मत मानिएगा, 
बात सच्ची है, कड़वी लग सकती है। 
पर किसी की ग़लती की सज़ा
किसी को भी मिल सकती है। 
 
वैसे आपकी बताने आया था विद स्माइल। 
आपके पड़ोसी की बदल गयी थी फ़ाइल। 
हमने भगवान को लाख लाख धन्यवाद दिया। 
और कविता का अंत कुछ इस तरह से किया। 
 
पड़ोसी तो लग के आ गया 
हॉस्पिटल की लाइन में। 
हम अभी भी चल रहे हैं 
क्वॉरंटाइन में। 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अँगूठे की व्यथा
|

  पहाड़ करे पहाड़ी से सतत मधुर प्रेमालाप, …

अचार पे विचार
|

  पन्नों को रँगते-रँगते आया एक विचार, …

अतिथि
|

महीने की थी अन्तिम तिथि,  घर में आए…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

हास्य-व्यंग्य कविता

कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं