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दास बाबू

हमारे एक मित्र थे बहुत ख़ास। 
नाम था राम इक़बाल दास। 
यूँ तो पढ़े लिखे थे, ’एम ए’ पास थे, 
स्कूल में पढ़ाते थे। 
 
परंतु अक़्सर ही हमें, 
विचित्र से हालत में नज़र आते थे। 
एक दिन तो बिना वज़ह ऐंठ गए। 
जा के भूख हड़ताल पर बैठ गए। 
 
कहने लगे 
इराक़ में रहने वाली बकरियों को बचाएँ। 
कोई अमरीकियों से कहिए, 
कि इराक़ पर बम न बरसाएँ। 
 
इस केस में हो गयी थी जेल। 
हम ही कर के लाए थे उनकी बेल। 
जानवरों से करते थे इतना प्यार, 
कि मुसीबत में फँसते थे हर बार। 
 
हाल ही में, 
कुत्ते का पिल्ला गोद में उठाए भौंक रहे थे। 
हर आने जाने वाले का रास्ता रोक रहे थे। 
 
एक अजनबी से कहने लगे, 
ख़ुदा का ख़ौफ़ खाओ। 
भगवान के लिए, 
इसे अपने घर ले जाओ। 
 
वो बोला, 
मिस्टर यह क्या सिलसिला है। 
दास बाबू बोले, 
यह कुत्ते का बच्चा हमें सड़क पे मिला है। 
 
वो बोला, 
ले तो जाऊँगा। 
पर यह तो बताओ, 
इसे खाना कहाँ से खिलाऊँगा। 
 
महँगाई ने ऐसे तोड़ी है कमर। 
बड़ी मुश्किल से चलता है घर। 
मित्र व्यर्थ तुम्हारी यह क्रीड़ा है। 
यहाँ नहीं समझता कोई तुम्हारी पीड़ा है। 
 
अगर लोग इतने ही संवेदनशील होते। 
तो कुत्ते छोड़ो, 
इंसान के बच्चे फुटपाथ पे नहीं सोते। 
 
तभी कुत्ते की माँ पिक्चर में आई। 
उसने दास बाबू से नज़र मिलाई। 
इसके बाद का मुश्किल देना है डाटा। 
कि मैडम ने सर को कहाँ कहाँ काटा। 
 
पर दास बाबू ना सुधरे हैं ना सुधरेंगे। 
एक दिन कुछ तो अच्छा कर गुज़रेंगे

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