शृंगार रस
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य कविता हरजीत सिंह ’तुकतुक’15 Jan 2022 (अंक: 197, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
एक बार हम मंच पर खड़े कविता सुना रहे थे।
श्रोता शृंगार रस में डूबे जा रहे थे।
हमारे कंठ से
कविता कामिनी बही जा रही थी।
परन्तु हमारी नज़र
पहली पंक्ति से आगे नहीं बढ़ पा रही थी।
क्योंकि पहली पंक्ति में बैठी एक बाला
बार बार हमें देख कर मुस्कुरा रही थी।
और लगातार
अपनी सैंडल सहला रही थी।
जब काफ़ी देर तक यह प्रक्रिया नहीं रुकने पाई।
तब हमारी अन्तरात्मा ज़ोर से चिल्लाई।
हमने कहा
हे देवी, क्यों सेन्टर की पॉलिसी अपना रही हो।
ऊपर से मुस्कुरा रही हो।
नीचे से चप्पल दिखा रही हो।
अरे अगर खुन्दक आ रही है
तो खुन्दक उतारो।
चप्पल उतारो
और दे मारो।
वो बोली
कविवर आप व्यर्थ ही घबरा रहे हैं।
शायद मेरा व्यवहार समझ नहीं पा रहे हैं।
आप के शृंगार रस में गोते लगा रही हूँ।
इस लिए बार बार मुस्कुरा रही हूँ।
और मेरे पति कहीं गोते ना लगाने लगें।
इस लिए यह सैंडल सहला रही हूँ।
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