गाँव गाँव में
काव्य साहित्य | कविता डॉ. गोरख प्रसाद ’मस्ताना’1 Jan 2021 (अंक: 172, प्रथम, 2021 में प्रकाशित)
लगी है चलने अँगड़ाई ले, हवा नशीली गाँव गाँव में
पता नहीं क्यों झूम रहीं, फ़सलें ज़हरीली गाँव गाँव में
हँसते थे, शहरों में रिश्ते होते चाय की प्याली में
अब तो संबंधों की राहें, पथरीली हैं गाँव गाँव में
धन की चकाचौंध से माना, सोच नगर की मैली है
आज बेटियों को कुछ लुच्चे, कहें रसीली गाँव गाँव में
था प्रदूषण कट्टरपन का, नगरों वाली गलियों में
इसमें ले, डुबकी राहें , बन रहीं कंटीली गाँव गाँव में
आदर के बदले दुत्कार की, रोटी खाती है माई
बनी ज़िंदगी बाबू जी के लिए पहेली, गाँव गाँव में
भइया, भउजी, काकी के, संबोधन हैं, दम तोड़ रहे
अहंकार की ऊँची होने लगी हवेली, गाँव गाँव में
ज्ञान किताबों वाला अब तो फ़ेसबुक तक सिमट रहा
लेने लगी पढ़ाई वाट्सऐप की अठखेली गाँव गाँव में।
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