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घूम रहे मुँह बाये


प्रेमचन्द के 
पात्र अभी तक 
घूम रहे मुँह बाये
 
परिवर्तन का 
ढोल पीटते 
थके नहीं अभिनेता
कलयुग को भी 
बात-चीत में 
बता रहे हैं त्रेता
 
झूठ बोल करके 
ही सबका
मन कब से बहलाये

कहते तो हैं 
गाँव-गाँव में
प्रगति हुई है भारी
फिर क्यों ‘होरी’ का 
झोपड़िया में
रहना है जारी
 
रात-रात भर 
नींद न आये
पटवारी हड़काये
 
बोझ क़र्ज़ का 
लदा पीठ पर
आँख दिखाये बनिया
मजबूरी में 
मज़दूरी संग
बेच रही तन ‘धनिया’
 
आँसू पी-पीकर 
जीवन का
दर्द स्वयं सहलाये
 
काग़ज़ पर ही 
दौड़ रही है
ख़ूब योजना उजला
‘घूरू’ के घर 
कई दिनों से 
चूल्हा नहीं जला
 
कैसे पाले पेट 
सभी का 
कहाँ जाय मर जाये
 
प्रेमचन्द के पात्र 
अभी तक 
घूम रहे मुँह बाये 

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