हवा के साथ मिलकर पंछियों के पर को ले डूबा
शायरी | ग़ज़ल अश्विनी कुमार त्रिपाठी15 Sep 2023 (अंक: 237, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
1222 1222 1222 1222
हवा के साथ मिलकर पंछियों के पर को ले डूबा
तरक़्क़ी का धुआँ धरती तो क्या अंबर को ले डूबा
सभी को छोड़कर पीछे हमें आगे निकलना था
जुनूँ आगे निकलने का ज़माने भर को ले डूबा
तभी से ही न कोई सूर मीरा जायसी जन्मा
बदलता दौर जबसे प्रेम के आखर को ले डूबा
जिसे ख़ुद को मिटाकर भी बुज़ुर्गों ने सहेजा था
कि बँटवारा हमारे गाँव के उस घर को ले डूबा
ज़माने हो गए बदली नहीं अख़बार की फ़ितरत
किसी का डर बढ़ाता है किसी के डर को ले डूबा
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
ग़ज़ल
- इक तमाचा गाल पर तब मार जाती है हवा
- कब किसी बंदूक या शमशीर ने रोका मुझे
- कब ये धरती और कब अंबर बचाना चाहती है
- कौन कहता है हवा दीपक बुझाना चाहती है
- जो चिंतनशील थे इस देश के हालात को लेकर
- बहुत होता सरल अपनी अना से दूर हो जाना
- भाइयों की आपसी तकरार से डरने लगे हैं
- रिश्तों की टूटन को कितना कम कर देता है
- लाभ का हिस्सा बड़ा जाता है जिन व्यापारियों तक
- हवा के साथ मिलकर पंछियों के पर को ले डूबा
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं