कभी आपको महसूस हुआ है डर का आतंकवाद?
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’15 May 2025 (अंक: 277, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
जब भी मैं ‘आतंकवाद’ शब्द सुनता हूँ, भीतर तक काँप उठता हूँ। मुझे अपने साथ हुए ‘आतंकवादी’ हादसे याद आ जाते हैं। भले ही सेना के एक नायक ने कहा हो कि इसमें आश्चर्य नहीं कि तीन आतंकवादियों ने सीधे 26 लोगों को गोली मार दी! कारण स्पष्ट है—हम प्रतिकार नहीं करते।
वे कहते हैं, कई सैनिक लड़ाई में जब स्पष्ट लक्ष्य नहीं होते, तब वे प्रतिरोध के कारण 20-25 गोलियाँ खाने के बावजूद ज़िन्दा बच जाते हैं। उनकी यह बात याद आते ही मुझे मोहम्मद गौरी का आक्रमण याद आ जाता है, जिसने कुछ लोगों के बल पर हमारे मंदिर लूट लिए थे। यदि देखने वाले लोग उसके सैनिकों पर टूट पड़ते, तो सब मारे जाते।
मगर, तभी मुझे अपनी स्थिति का स्मरण हो आता है। भले ही सेनानायक ने उक्त बात कही हो, मैं भी इस आतंकवाद का शिकार रहा हूँ। चाहकर भी कुछ नहीं कर पाया, क्योंकि मेरी मानसिकता ही ऐसी बन गई है। मेरा बेटा यह बात अच्छी तरह जानता था।
उसे पता था कि पापा को आतंकवाद कब दिखाना है। इस कारण वह अपनी एक माँग हमेशा तैयार रखता। जब भी घर में मेहमान आते, वह उसी माँग को लेकर ज़िद करने लगता। मैं मना करता, तो वह मेहमानों के सामने धूल-मिट्टी में लोटने लगता। नतीजतन, मुझे उसकी माँग पूरी करनी पड़ती।
मगर एक दिन मैंने ठान लिया कि अब उसके आतंकवाद को नहीं चलने दूँगा। इससे मुक्त होकर रहूँगा। अपने एक ख़ास मित्र को मेहमान के तौर पर बुलाया। बेटा फिर आतंकवाद मचाने लगा, लेकिन मैंने ठान लिया था कि अब मुक्ति पाकर रहूँगा। मैं ज़मीन पर बैठकर उसे मारने की कोशिश करने लगा, ताकि उसके गाल पर थप्पड़ जड़ सकूँ।
शायद उसने सेनानायक का कथन पढ़ रखा था। वह तेज़ी से इधर-उधर लोटने लगा। मैं थप्पड़ लगाने के लिए गाल ढूँढ़ रहा था, मगर उसका गाल स्थिर नहीं था। कभी थप्पड़ पाँव पर, कभी हाथ पर लग जाता। मैं समझ गया कि इस फ़ुर्तीले लड़के को गाल पर थप्पड़ नहीं मारा जा सकता। तब मैंने उसके पैर पकड़कर उसे धर दबोचा।
जैसे ही मैंने उसे पकड़ा, मित्र आ पहुँचा। मेरा आतंकवादी पुत्र क़ाबू में आ गया था। मेरा शेरदिल कलेजा ख़ुशी से फूल गया। मगर तभी मेरी पत्नी, यानी शेरनी, आ पहुँची। आते ही बोली, “क्या कर रहे हो? मेरे लाड़ले को मार डालोगे क्या?”
यह सुनते ही लाड़ला फिर आतंकवादी बन गया। मेरे हाथ-पाँव फूल गए। तब समझ आया कि शेर, शेरनी के सामने; मोर, मोरनी के सामने; और बड़ा से बड़ा डाकू, अपनी पत्नी के सामने क्यों नाचता है! काश, मैं भी पत्नी और बच्चों से कुछ गुर सीख पाता, ताकि इस आतंकवाद से मुक्त हो सकता।
तभी मुझे एक घटना याद आई। एक बार शिक्षक ने कहा था, “बोलने वाले की गुठली बिक जाती है, नहीं बोलने वालों के आम पड़े रह जाते हैं।” मुझे मंच पर बोलने के लिए प्रेरित किया गया। पूरा भाषण रटकर मंच पर गया, लेकिन हज़ारों की भीड़ देखकर डर का आतंकवाद हावी हो गया। बोलती बंद हो गई, सब भूल गया। चुपचाप मंच से लौट आया।
तब पहली बार जाना कि डर का आतंकवाद क्या होता है। यह हर किसी को सताता है। शायद आपको भी सताया हो। अगर आपको इसका इलाज मिल जाए, तो मुझे ज़रूर बताइएगा, ताकि मैं भी अपने डर के आतंकवाद से मुक्त हो सकूँ।
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