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लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की पुस्तक 'बंदर की चल पड़ी दुकान' बाल कविताओं का सुंदर गुलदस्ता है

पुस्तक का नाम: बंदर की चल पड़ी दुकान
कवि का नाम: लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव
प्रकाशन: संगिनी प्रकाशन, कानपुर
मूल्य: 200 रुपए
संस्करण: प्रथम, 2023
पृष्ठ: 72

बालसाहित्य का अर्थ है—बच्चों का साहित्य। बालसाहित्य तभी सार्थक है, जब बच्चों को ध्यान-ध्यान में रखकर लिखा जाए और बच्चों तक पहुँचे। बालसाहित्य के अंतर्गत वह समस्त साहित्य आता है, जिसे बच्चों के मानसिक स्तर को ध्यान में रखकर लिखा गया हो। जयप्रकाश भारती, हरिकृष्ण देवसरे से लेकर नागेश पांडेय ‘संजय’, सतीश कुमार अल्लीपुरी, शिव मोहन यादव, मनोहर चमोली ‘मनु’ तक एक लंबी सूची है, जिन्होंने बच्चों के लिए सुंदर और गेय, बाल सुलभ रचनाओं का सृजन कर बालसाहित्य को रोचक बनाया है। 

सन् 1970 ई. को ग्राम कैतहा, पोस्ट भवानीपुर, ज़िला बस्ती, उत्तर प्रदेश में श्री अमरनाथ लाल श्रीवास्तव और श्रीमती लीला श्रीवास्तव की छह संतानों में दूसरी संतान के रूप में जन्मे लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव ने बी.एससी., बी.एड. तथा एलएलबी तक की पढ़ाई की है। देवेन्द्रजी विज्ञान वर्ग के विद्यार्थी होते हुए भी हिंदी साहित्य में गहरी रुचि रखते हैं। ‘नव किरण’ तथा ‘बाल किरण’ दो पत्रिकाएँ हिंदी जगत में आज बड़ा दख़ल रखती हैं। लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव इन पत्रिकाओं के संस्थापक-संपादक हैं। आपकी साहित्य सेवा को देखते हुए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ ने आपको लल्ली प्रसाद पांडेय बाल पत्रकारिता सम्मान से नवाज़ा है। 

ज्ञात हो, लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव बालसाहित्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे बच्चों के लिए ‘बाल किरण’ और बड़ों के लिए ‘नव किरण’ पत्रिका का वर्षों से संपादन-संचालन कर रहे हैं। इस बीच उन्होंने अपने रचना कौशल को रचनात्मक दृष्टि से परखा और जाँचा है, तभी तो उनकी क़लम पैनी होती जा रही है। उनकी बालमन को गहरे तक छूने वाली सुंदर बाल कविताएँ बच्चों का मनोरंजन ही नहीं करतीं, बल्कि उन्हें एक रास्ता भी बताती हैं, हृदय में अच्छा इंसान बनने का जज़्बा जगाती हैं और खेल-खेल में संदेश देती हुई मन में बस जाती हैं। ऐसा ही “बंदर की चल पड़ी दुकान” उनका पहला बाल कविता संग्रह है, जो हाल ही में संगिनी प्रकाशन, कानपुर से प्रकाशित होकर आया है। इस बाल कविता संग्रह में कुल 27 बाल कविताओं का चयन किया गया है। 72 पृष्ठ की इस पुस्तक की समीक्षा श्रेष्ठ गीतकार डॉ. महेश मधुकर और डॉ. त्रिलोकी सिंह ने लिखी है। फ़्लैप पर ही छपी कविता बालमन पर अपनी छाप छोड़ी है। एक पंक्ति देखें:

“कमजोरों का बनें सहारा, 
नई रोशनी लाएँगे। 
हिम्मत को मज़बूत करें हम, 
तब मंज़िल को पाएँगे।”

जो लोग ज़िन्दगी से हार जाते हैं, यह कविता कुछ करने का जज़्बा उनके अंदर जगाती है। बच्चे जो सोच लेते हैं, वह करके दिखाते हैं। ऐसी ही कविता की एक और पंक्ति द्रष्टव्य है:

“नहीं डरेंगे तूफ़ानों से, 
क़दम बढ़ाते जाएँगे। 
सत्य राह से नहीं डिगेंगे, 
जीवन को महकाएँगे।”

यह कविता हमारे उन किशोरों के लिए है, जो ज़रा सी बात पर हार मान लेते हैं, उन्हें यह कविता आगे बढ़ने और जीवन में कुछ कर गुज़रने का संदेश देती है। 

बच्चे मन के सच्चे होते हैं। वह कभी झूठ नहीं बोलते, जो कहते हैं, सत्य कहते हैं। इस बाल कविता संग्रह की पहली कविता “हम सब बच्चे, मन के सच्चे” की एक पंक्ति देखें:

“मात-पिता की बात मानता, 
कभी न करता मैं मनमानी। 
पापा मुझको डाँट लगाते, 
जब करता कोई शैतानी। 

जब भी मैं रोने लगता हूँ, 
दादा-दादी चुप्प कराते। 
गोदी में ले प्यार जताते, 
परियों वाली कथा सुनाते।”

बच्चे घर में रहते हैं, तो अक्सर उधमबाज़ी करते हैं। यह होते रहना भी चाहिए, यदि बच्चे घर में हैं, तो चहलक़दमी रहती है, जिस घर में बच्चे नहीं होते, वह घर सूना-सूना लगता है। लेकिन आज का बालक बहुत समझदार है। माता-पिता की बात मानते हैं, कोई शैतानी करने पर जब डाँटा जाता है, तो रोते हैं और दादा-दादी से शिकायत भी करते हैं। 

आज समाज में संस्कार और सदाचार की अक्सर कमी देखी जा रही है। बाल कविता के माध्यम से देवेन्द्र जी ने बच्चों के लिए सुंदर संदेश देने का प्रयास किया है। पंक्ति दृष्टव्य है:

“शाला में मिस रोज़ पढ़ातीं, 
अच्छे से सबको समझातीं। 
अच्छी कविता गीत पढ़ाकर, 
संस्कार का पाठ सिखातीं।”

आज पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ बच्चों के लिए संस्कार तो आवश्यक हैं ही, उनको जब तक अपने कार्य में सफल न हों, तब तक संघर्ष करते रहने के संस्कार भी देने चाहिए। “हम सीखें सूरज दादा से” कविता के माध्यम से बहुत सुंदर तरीक़े से देवेंद्र जी समझाते हैं:

“करते नहीं बहाना कोई, 
कभी न आलस करते। 
कभी नहीं सुस्ताते हैं वे, 
दिन भर चलते रहते। 

जाड़ा, गर्मी या हो वर्षा, 
अपना फ़र्ज़ निभाते। 
करें शिकायत नहीं किसी से, 
किरण-पुंज फैलाते।”

सूरज पूरी दुनिया को रोशन करता है, लेकिन कभी शिकायत नहीं करता। इसी का भाव बच्चों में जगाने का काम देवेन्द्र जी की कविताएँ करती हैं। 

माँ ख़ुद परेशानी उठाकर बच्चों का पालन-पोषण करती है, उसको सही मार्ग दिखाती है। विद्वानों ने माँ को परिवार की प्रथम पाठशाला भी कहा है। लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव भी बच्चों को अपनी कविता “माँ गंगा का निर्मल नीर” कविता में गंगा माँ और जन्म देने वाली माँ की तुलना करते हुए अच्छा संदेश देने का प्रयास करते हैं:

“कैसे माँ का करूँ बखान, 
माँ में बसते मेरे प्राण। 
बसा स्वर्ग माँ के चरणों में, 
माँ रामायण और क़ुरान। 

संस्कार, सद्गुण दे माता, 
बच्चा पुरस्कार में पाता। 
माँ का क़र्ज़ चुकाऊँ कैसे, 
जीवन भर यह समझ न आता।”

माँ जैसा त्यागी, परोपकारी इस संसार में दूसरा और कोई नहीं है। माँ के चरणों में स्वर्ग होता है। बच्चे को संस्कार और सद्गुण अपनी माँ से पुरस्कार में मिलते हैं, इसका क़र्ज़ मानव जीवन भर नहीं चुका पाता है। 

गाँव का जीवन एकदम मस्त होता है। कल कल बहती नदियाँ, सनन-सनन चलती ठंडी हवा और खेतों में दूर तक फैली हरियाली मन को आनंदित करती है। लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव अपनी कविता “जीवन हमारे गाँव का” में बच्चों को गाँव की बात बड़ी सरलता से समझाते हैं:

“बड़ी निराली बात गाँव की, 
सभी ओर हरियाली। 
पेड़ों पर हैं आम लटकते, 
घर-घर में ख़ुशहाली। 

कृषक खेत में हैं श्रम करते, 
वे अनाज उपजाते। 
नहीं शहर-सा शोर-शराबा, 
दूध-दही हम खाते।”

आज भी गाँव का जीवन शानदार समझा जाता है। लोग मिल-जुलकर रहते हैं। हर व्यक्ति सब्ज़ी-चटनी से रोटी खाते हुए ख़ुशहाली का जीवन व्यतीत करता है और शहर जैसा शोर-शराबा वहाँ नहीं होता है। 

भारत में ऋतुओं को 6 भागों में बाँटा गया है: वर्षा, ग्रीष्म, शरद, हेमंत, शिशिर, वसंत। हर ऋतु का एक अलग ही आनंद और उत्साह लोगों में देखने को मिलता है। लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव जाड़े के मौसम का वर्णन “सूरज दादा जाड़े में” कविता में करते हैं:

“सूरज दादा जाड़े में तुम, 
छुपे-छुपे क्यों रहते हो? 
तेज धूप के साथ नहीं क्यों? 
तुम जल्दी से उगते हो। 

तेज़ धूप जब लगे नहीं तो, 
हो ख़राब सर्दी में हाल। 
लगता है जाड़े में तुम भी, 
सर्दी से रहते बेहाल।”

एक बालक कल्पना करता है कि सूरज दादा बादलों में छिपे रहते हैं और संपूर्ण मानव जाति ठंड से ठिठुरती रहती है, उसी की कोमल कल्पना कर देवेन्द्र जी ने जाड़े के मौसम का ताना-बाना इस कविता में बुना है। 

जैसा कि ऊपर भी लिखा जा चुका है कि बच्चे मन के सच्चे होते हैं। उनकी कल्पना की उड़ान दूर तक होती है। वे सदैव सत्य बोलना पसंद करते हैं। चूँकि देवेन्द्र जी एक शिक्षक हैं। उन्होंने शिक्षण के दौरान बच्चों के मन को गहरे जाकर पढ़ा है। कविता की पंक्ति दृष्टव्य है:

“बच्चे होते मन के सच्चे, 
उन्हें करें हम प्यार-दुलार। 
मात-पिता के सपने सारे, 
बच्चे ही करते साकार। 

उन्हें महकने दें फूलों-सा, 
और पंछियों-सा चहकाएँ। 
बड़े प्यार से सदुपदेश दें, 
अच्छी बातें उन्हें बताएँ।”

यदि हम बच्चों को उनका संसार दें, तो वे अपनी कल्पना शक्ति से अच्छे कार्य कर जाते हैं। इसलिए देवेंद्र जी बच्चों को उनका संसार देने की वकालत इस पंक्ति में करते नज़र आते हैं। बच्चों को सत्य के पथ पर चलने के लिए प्रेरित करती इनकी एक कविता की पंक्ति द्रष्टव्य है:

“सत्पथ पर मैं चलता जाऊँ, 
तन-मन से कर्त्तव्य निभाऊँ। 
दुख में मैं बन सकूँ सहायक, 
नित आशीष बड़ों का पाऊँ। 

मानवता को कभी न भूलूँ, 
पाऊँ सदा सत्य का ज्ञान। 
पड़े ज़रूरत अगर देश को, 
हो जाऊँ सहर्ष बलिदान।” 

हमें समाज को साफ़-सुथरा बनाना है, तो बच्चों के हाथों में मोबाइल की जगह अच्छा और संस्कार सिखाने वाला बालसाहित्य उनके हाथों में देना होगा, तभी आने वाली पीढ़ी के हाथों में भारत का भविष्य सुरक्षित रह सकता है। देवेन्द्र जी यह संस्कार अपनी कविताओं के माध्यम से बख़ूबी बच्चों को दे रहे हैं। 

जानवर भी अपने आशियाने बनाने और उजड़ने पर दुःख प्रकट करते हैं। अपना घर सबको अच्चा लगता है। ऐसा ही संदेश देवेन्द्र जी की एक कविता देती नज़र आती है। पंक्ति देखें:

“चंदन वन के सभी जानवर, 
मिलकर करने लगे विचार। 
इंसानों की तरह बनाएँ, 
हम सब भी सुंदर घर-द्वार। 

वर्षा, जाड़ा या हो गर्मी, 
इधर-उधर हम फिरते हैं। 
गर्मी में तो चुए पसीना, 
सर्दी पड़े ठिठुरते हैं।” 

आज जब सब ओर स्मार्ट बनने, स्मार्ट सिटी होने की बात हो रही है, तो जानवर भला कहाँ पीछे रह सकते हैं। वे भी स्मार्ट बनने के तौर-तरीक़ों पर बात करते हैं। पंक्ति देखें:

“स्मार्ट लगें हम सभी जानवर, 
ज्यों दिखते इन्सान। 
सभी जानवर हुए इकट्ठे, 
बाँटा सबने ज्ञान।” 

“बंदर की चल पड़ी दुकान” संग्रह की शीर्षक कविता में बंदर ने भी फलों की दुकान खोल ली है। आम बच्चों को बेहद पसंद होता है। इस कविता के माध्यम से देवेन्द्र जी बच्चों को आमों के नाम भी बताते हैं। वे लिखते हैं:

“बिकने लगे पके अब आम, 
मन को ख़ूब लुभाए आम। 
कहे फलों का राजा आम, 
सबसे बड़ा दशहरी नाम। 

मीठे और रसीले होते, 
जी भरकर सब खाते आम। 
चौसा, लँगड़ा आदि बहुत से, 
सुंदर इन आमों के नाम।” 

अपनी सुविधा के लिए हम इंसानों ने स्कूल, बाज़ार स्थापित किए हैं, जहाँ हमारी सुख-सुविधाओं की वस्तुएँ मिलती हैं। देवेन्द्र के विचार से जानवरों ने भी वैसा ही बाज़ार स्थापित करने की योजना बनाई है। पंक्ति देखें:

“जंगल में मंगल करने की, 
सब पशुओं ने है ठानी। 
जंगल में बाज़ार लगेंगे, 
तनिक न होगी मनमानी।” 

जब बाज़ार लगेगा, तो उसमें सभी सुख-सुविधाएँ होगी। आजकल मॉल खुलने का फ़ैशन सा चल गया है, महँगी-महँगी वस्तुएँ मिलती हैं। लेकिन समाज में अच्छे संस्कार देने के लिए स्कूल बहुत ज़रूरी है, जहाँ अच्छी शिक्षा मिल सके। पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं:

“बड़े-बड़े कुछ मॉल बनेंगे, 
सुंदर-सुंदर हाट सजेंगे। 
पशुओं के पढ़ने-लिखने के, 
अच्छे-अच्छे स्कूल खुलेंगे।” 

हमारे बच्चों को नया मार्ग दिखाने, उनमें उत्साह भरने के लिए देवेन्द्र जी एक बड़ी प्यारी कविता लिखते हैं, पंक्ति देखें:

“जीवन में हो नव उत्साह, 
कुछ नूतन करने की चाह। 
जीने की हो नव उम्मीद, 
रुके न हरगिज़ प्रगति-प्रवाह। 

मन में जगे न ईर्ष्या-द्वेष, 
कभी किसी को मिले न क्लेश। 
ख़ुशहाली जन-जन में पनपे, 
परम सुखी हो भारत देश।” 

जब बारिश का मौसम आता है, तब बच्चों के मन में तमाम खेल चल चल रहे होते हैं। पानी में नाव चलाना, बच्चों पहला शौक़ है। लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव ने नाव को लेकर एक सुंदर कविता रची है। पंक्ति द्रष्टव्य है:

“काग़ज़ की इक नाव बनाएँ, 
फिर पानी में इसे चलाएँ। 
बैठ नाव पर मज़े उड़ाएँ, 
सबके मन को हम बहलाएँ।” 

जानवरों की भी अपनी एक दुनिया है। वे भी सोचते हैं कि इंसानों की तरह दुकान रखें और खाएँ, कमाएँ। आत्मनिर्भर रहें। ऐसे ही एक आत्मनिर्भर बंदर ने एक दुकान खोली है। बंदर को ध्यान में रखकर देवेन्द्र जी ने बहुत सुंदर कविता रची है। इसी बाल कविता के नाम पर इस बाल कविता संग्रह का नाम रखा गया है। कविता की पंक्ति देखें:

“कालू बंदर ने जंगल में, 
किया बड़ा एलान। 
उछल-कूद के बदले घर में, 
होगी एक दुकान।”

जब बंदर ने दुकान खोलने का मन बनाया, तब क्या-क्या दुकान में सामान रहेगा और माल बिकेगा भी या नहीं, जैसे कई विचार उसके मन में थे। दूसरी तरफ़ उधारी अधिक बढ़ने का भी डर था:

“खुली दुकान, धड़ाधड़ बंदर, 
लगा बेचने माल। 
लेकिन बढ़ने लगी उधारी, 
बिगड़े सब सुर-ताल।” 

अक्सर कोई भी रो शुरू करने पर जब उधारी बढ़ने लगती है, तो दुकान डूबने के कगार पर पहुँच जाती है। यह कविता इसी बात को दर्शाती है। 

पर्यावरण हम सब जीवों के लिए आवश्यक है। लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव ने पर्यावरण को लेकर एक शानदार कविता लिखी है। पंक्ति देखें:

“आओ दो-दो पेड़ लगाएँ। 
करें सुरक्षा, इन्हें बढ़ाएँ। 
पेड़ बड़े जब हो जाएँगे, 
उनके फल हम सब खाएँगे।”

केवल पेड़ लगाकर इतिश्री कर लेना ही काफ़ी नहीं है। पेड़ लगाने के बाद उनकी देखभाल करना भी बेहद ज़रूरी है। ऐसा ही संदेश देती देवेन्द्र जी की कुछ और पंक्तियाँ:

“इन पेड़ों को सदा बचाएँ, 
इनसे लाभ अनेक उठाएँ। 
वृक्षों से बढ़ती हरियाली, 
देती है मन को ख़ुशहाली।” 

भारत देश में ही ऐसे बहुत से परिवार हैं, जो साग-सब्ज़ी अथवा अन्य रोज़गार करके परिवार का पालन-पोषण करते हैं, इसमें उनका उद्देश्य यही होता है कि बच्चे अच्छे से पढ़-लिख जाएँ और घर-परिवार का ख़र्चा भी अच्छे से चल जाए। ऐसी ही मनभावन एक कविता की पंक्ति दृष्टव्य है:

“साग बेचने लल्लन काका, 
ठेला लेकर आते। 
ले लो बाबू, ले लो बहना, 
ज़ोर-ज़ोर चिल्लाते। 

X X X X X

इन पैसों से सही तरह से, 
बच्चों को पढ़वाते। 
पढ़ते देख उन्हें फिर काका, 
फूले नहीं समाते। 

काका जी को हुआ भरोसा, 
बच्चे सफल बनेंगे। 
मातु-पिता के संग स्वदेश का, 
रोशन नाम करेंगे।” 

आँवला बहुत गुणकारी होता है। घरों में अक्सर आँवला की चटनी, मुरब्बा बनाया जाता है, इसे बच्चे, बड़े सभी पसंद करते हैं, साथ ही यह दवाई आदि में भी काम आता है। इसके लाभ गिनाते हुए देवेन्द्र जी ने बहुत सुंदर कविता लिखी है:

“लगे आँवला अमृत जैसा, 
होता है गुणकारी। 
इसकी चटनी और मुरब्बा, 
सदा पसंद हमारी। 

X X X X X X

कई फ़ायदे इससे होते, 
दादाजी बतलाते। 
जाड़े के मौसम में दादा, 
ख़ूब आँवला खाते।”

आज प्रकृति के बिगड़ते स्वरूप का मानव और जानवर सभी पर व्यापक असर पड़ रहा है। जंगल उजाड़कर बड़े-बड़े उद्योग-धंधे खोल दिए गए, लेकिन नए बाग़-बग़ीचे लगाने के बारे में कोई नीति नहीं बनी, पशु-पक्षी बेघर हुए सो अलग। इसी का परिणाम है, बिना मौसम के बारिश, अधिक ठंड, अधिक गर्मी। बिगड़ते मौसम के स्वरूप को लेकर देवेन्द्र जी चिंता व्यक्त करते हैं और समाज को जागरूक करते हुए लिखते हैं:

“काट रहे वृक्षों को मानव, 
सभी जानवर रहें कहाँ। 
नंदन वन हम सबका घर है, 
भटक रहे पर यहाँ-वहाँ। 

X X X X X X

पेड़ काटकर बना रहे हैं, 
ऊँचे आलीशान मकान। 
पेड़ न हों तो बिन ऑक्सीजन, 
कैसे बच पाएँगे प्राण।”

आज हर घर में दो से तीन वाहन हैं। आज का मानव पैदल चलना बिल्कुल पसंद नहीं करता। इसी का परिणाम है, शहरों में आए दिन जाम की स्थिति बनी रहती है। कई बार ज़रूरी जगहों पर पहुँचने वाले लोगों के वाहन जाम में फँस जाते हैं और लेट होने का ख़म्याज़ा उन्हें भुगतना पड़ता है। इसी को लेकर देवेन्द्र जी ने सुंदर कविता रची है:

“शहरों और महानगरों में, 
लगे जाम ही जाम। 
अक्सर वाहन फँस जाते हैं, 
दुपहर हो या शाम। 

X X X X X X X

बिना किसी भी काम काज के, 
दौड़ाते हैं कार। 
वाहन दिखते फँसे सड़क पर, 
हमको कई हजार।”

आज बच्चे हों या बड़े, सभी लोग वाहन सड़क पर आते ही तेज स्पीड में दौड़ाते हैं, परिणामस्वरूप दुर्घटनाग्रस्त हो जाते हैं। देवेन्द्र जी भावी पीढ़ी को कम वाहन रखने और कम दूरी के लिए पैदल चलने का सुझाव देते हैं:

“अब पैदल चलना तो लगभग, 
भूल गए हैं लोग। 
सड़क जाम के हमने ही तो, 
बना दिए हैं योग। 

कई-कई वाहन रखने की, 
छोड़ें भी अब चाह। 
कम वाहन रखने पर भी तो, 
हो सकता है निर्वाह।” 

लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव पेशे से शिक्षक और कोमल हृदय से कवि हैं। उनका संग्रह बंदर की चल पड़ी दुकान कविता संग्रह में कुल 27 कविताएँ हैं। ये बाल कविताएँ हैं-हम सब बच्चे, मन के सच्चे, हम सीखें सूरज दादा से, जोकर ख़ूब हँसाता, प्यारा-प्यारा फल तरबूज, माँ गंगा का निर्मल नीर, जीवन हमारे गाँव का, सूरज दादा जाड़े में, बच्चे मन के सच्चे, कार्य करें न ऐसा कुछ भी, लिल्ली-मिल्ली, चंदन वन में घर, स्मार्ट लगें हम सभी जानवर, मीठे और रसीले आम, जंगल में मंगल, फल से हमको मिलता बल, हार हमें मंज़ूर नहीं, आगे बढ़ते जाएँगे, बरस रहा है छम-छम पानी, विद्यालय की अभिलाषा, कुछ दिन हम मस्ती कर लें, मेहनत रंग लाई, बंदर की चल पड़ी दुकान, पेड़ लगा ख़ुशहाली लाएँ, सब्ज़ी वाले लल्लन काका, आँवला कैंडी, नंदन वन में मेला तथा जाम का झाम। निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि लाल देवेन्द्र कुमार श्रीवास्तव की यह सभी बाल कविताएँ बालमन को आनंदित करने में सक्षम हैं और बालसाहित्य की कसौटी पर खरी उतरती हैं। बच्चों का भरपूर मनोरंजन करती हैं, उन्हें आगे बढ़ने का संदेश देती हैं, उनमें संस्कार सिखाती हैं। 

समीक्षक:

डॉ. उमेशचन्द्र सिरसवारी
ग्रा. आटा, पो. मौलागढ़, 
तह. चंदौसी, ज़ु. सम्भल
 (उ. प्र.)-244412
मो. 9410852655

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