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लेखक का संन्यास

 

लेखन से संन्यास लेने की घोषणा करते ही विरोधियों के नये पंख लग गये। कई ने तो मिठाई बाँट दी। कई ने हनुमान जी को सवा किलो लड्डू चढ़ाने की बात की। अपार ख़ुशी व्यक्त करते हुए एक वरिष्ठ साहित्यकार ने सबसे अच्छा निर्णय कहा। उनके हृदय को ठंडक पहुँच गयी। 

एक साहित्यकार ने मुझे अपनी सफलता में रोड़ा तक बता दिया। कहा कि इस उदण्ड दबंग साहित्यकार के कारण जहाँ का तहाँ ही रह गया। कुछ ने घड़ियाली आँसू बहाये। अंदर से मगन नज़र आये। 

किसी ने मनदबे से मुँह खोला कि ऐसा आदरणीय न करिये नहीं तो साहित्य रसातल में चला जायेगा। एक प्रसिद्ध कवयित्री के आँखों से झर-झर अश्रु बह गये। एक तो फूट-फूट कर रोई और कहा कि ऐसा मत करिये नहीं तो जीवन-भर के लिये अनाथ हो जाऊँगी। 

कुछ लोग चुप रह गये। कुछ नहीं बोले लेकिन सुलगते रह गये। आसमान में उड़ता हुआ धुआँ दिखाई दिया। जो अपने थे वो बग़ल के गुट में चले गये। कुछ ने तो गालियाँ देते हुए कहा कि इसका बचा-खुचा अस्तित्व ही मिटा दो, न रहेगी बाँस, न बजेगी बाँसुरी। 

पत्नी ने कहा कि दिन का भूला शाम वापस आ जाये, उसे भूला नहीं कहते। यह मेरे लिये किसी ख़ुशी से कम नहीं। ‘मेरा सजन घर आया . . .’ गीत गा-गाकर प्रफुल्लित हो रही थी। 

मेरे एक दोस्त ने कहा कि क़लम के नशे से अच्छा बोतल का नशा होता है। उसने पिला दी। सुबह आँखें खुलीं तो देखा दो कुत्ते सूँघ रहे थे। लोगों की ख़ुशी देखकर जलभुन गया, अगले दिन संन्यास रद्द कर दिया। 

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