माघ मेले में एक दिन
आलेख | ललित निबन्ध जयचन्द प्रजापति ‘जय’1 Feb 2024 (अंक: 246, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
माघ मेला आ गया चुपके से। इलाहाबाद का मेला तो क्या कहने! अब मेले की तैयारी ज़ोरों से है। बल्लियाँ लग गयीं। लाइटिंग हो रही है। जी भर जलेबी खाई जाएगी। क्या भीड़ होगी? रौनक़ होगी। नये-नये कपड़े निकाले जायेंगे। फ़ैशन दिखाने का पूरा बहाना।
बच्चे सब ख़ुश नज़र आ रहे हैं। अच्छे-अच्छे खिलौने ख़रीदे जाएँगे। पुरुष भी तैयारी में लगे हैं। कपड़े इस्त्री कराये जा रहे हैं। नये-नये जूते ख़रीदने की तैयारी हो रही है। कुछ लोग सोच रहे हैं कि पुराने जूतों को पालिश कराकर काम चला लेंगे।
औरतें भी ख़ुश हैं सारे शृंगार का सामान ख़रीद ही लिया जाये तो कई महीनों तक नहीं लेना पड़ेगा। लाल-लाल, हरी-हरी चूड़ियाँ ठीक रहेंगी। लाल हरी गुलाबी साड़ी में तो ख़ूबसूरत दिखूँगी। मज़ा आ जायेगा। लल्लू के पापा देखकर ख़ुश हो जायेंगे। बोलेंगे—बिल्कुल दुलहन सी लग रही हो। बच के जाना कहीं कोई नज़र लगा देगा तो . . .
आज मेला देखने हम चार बच्चों के साथ पत्नी भी सुबह से निकल पड़े। छोटा बच्चा उछल पड़ा, “पापा हाथी।”, “ये-ये गुब्बारा–लाल-लाल। अरे ये क्या है? फुलकी पानी!” बिटिया मेरी ने एक गुब्बारा ख़रीद लिया। “मज़ा आ गया। पापा कितना प्यारा गुब्बारा है।”
आगे जैसे बढ़े झूला दिखाई दे गया। बच्चे सब उछल पड़े, “पापा झूला झूलेगें।”
“नहीं-नहीं कोई नहीं झूलेगा। गिर जाओगे। हाथ पैर टूट जायेंगे।”
पैसा बचाने के लिए बहाना किया।
“नहीं गिरेगें पापा। टूटेंगे तो हमारे टूटेंगें।”
बच्चों के ज़िद के आगे सब फ़ेल। सब लोगों ने झूले का आनंद लिया।
“मेरे अच्छे पापा मज़ा आ गया।” आगे बढ़े। सब लोगों ने फुलकी पानी का मज़ा लिए।
“क्या जलेबी है! पापा ले लो। मम्मी दिलवा दो न जलेबी। लाल-लाल, गोल गोल। गुड़ वाली जलेबी ले लो मम्मी।”
जलेबी का आनंद लिया गया। पत्नी ने भी शृंगार की दुकान देख ली थी। वह शृंगार का सारा सामान ख़रीद लिया। सब बच्चों ने अपने अपने हिसाब से सामान ख़रीद लिये। हमने अपने लिए एक सिगरेट का पैकेट ख़रीद लिया।
सड़क की पटरियों पर दुकान सजी हुई हैं। तरह तरह के सामान बेचे जा रहे हैं। ख़ूब भीड़ है। मेले में जमकर ख़रीदारी हो रही है। ख़ूबसूरत लड़कियों, औरतों से मेले की रौनक़ शाम होते-होते मज़ेदार हो गयी। रंगीन माहौल। लाइटें जल गयीं हैं। ख़ूबसूरत रौनक़। हर कोई मेले का आनंद ले रहा है। दादा दादी सब दिखाई दिए। सब के लिए ख़ुशी लाया था। जगह-जगह नृत्य हो रहे थे। तरह-तरह के खेल-खिलौने। सब लोगों ने ख़रीददारी की। रात भर मेला चला। जी भर मेला देखा गया। जी भर ख़र्च किया गया इलाहाबाद के माघ मेले में।
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Jaychand prajapati 2024/01/19 08:21 PM
धन्यवाद