माँ की परिभाषा
काव्य साहित्य | कविता अपूर्व कुशवाहा15 Dec 2022 (अंक: 219, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
माँ के लिये आज भी कोई सम्पूर्ण परिभाषा नहीं है
माँ के लिये संतान से बड़ी कोई अभिलाषा नहीं है
बच्चों के लिये वो अपना खानापीना भूल जाती है,
बच्चों की ख़ुशियों में बस वो मिश्री सी घुल जाती है,
बच्चों के लिये लोरी से मीठी आज भी कोई भाषा नहीं है॥
अपने सारे बच्चों में हर माँ की जान रहती है,
बच्चों के लिये वो हर मुश्किल से लड़ती है,
बच्चों के लिये मुश्किलों में माँ से बड़ी कोई आशा नहीं है॥
बच्चों की परवरिश में माँ का बड़ा योगदान होता है,
माँ के लिये वयस्क बच्चा भी ताउम्र नादान होता है।
कोई नहीं जिसके भविष्य को माँ ने बलिदान से तराशा नहीं है॥
सारी उम्र जो बच्चों के लिये सब शान्ति से सहती है,
बुढ़ापे में कभी छोटी छोटी चीज़ों को भी तरसती है,
इतना सब सहकर भी माँ के मन में बच्चों से कोई निराशा नहीं है॥
बच्चे बड़े हो कर दूसरे शहरों और देशों में बसते हैं,
ममता के आँचल से दूर हो हज़ारों कष्ट वो सहते हैं,
पर किसी भी दुख में माँ के आँचल से बड़ा कोई दिलासा नहीं है॥
बड़े होकर दुनिया को समझने में बड़ी घबराहट होती है,
अक़्सर अपने चारों ओर परेशानियों की कड़वाहट होती है,
कड़वाहट मिटाने वाला माँ की ममता जैसा दुनिया में कोई बताशा नहीं है॥
ये कलयुग है यहाँ आजकल सारे रिश्ते तार तार हो रहे हैं,
माँ वृद्धाश्रम में रहती है और ख़त्म संयुक्त परिवार हो रहे हैं,
ये सब सहकर भी माँ को अपने कलेजे के टुकड़ों से कोई हताशा नहीं है॥
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