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मैगनोलिया प्रकाश – 01

 

दुनिया को देखने का नज़रिया ट्रॉफोस्फेयर में आने के बाद बदल जाता है क्योंकि वहाँ से शुरू होता है रंगों के दरिया का समुच्चय दिखना। क्या कोई अंतरिक्ष से देखकर यह कह सकता है कि इस नीली दुनिया का रंग वास्तव में इतना रंगीन होगा? क्या यह दुनिया वैसी ही है जिसमें मानव ने पहली बार बस्ती बना कर रहना शुरू किया था? क्या तब भी लोगों की भावनाएँ आहत होती होंगी? ऐसे ही अजीबो-ग़रीब ख़्यालों में डूबा दुनिया के नितांत कोने में बैठा डॉ. परमात्मा उसके मनमाफ़िक जवाबों को तलाश रहा था। पेशे से ऐंथ्रोपॉलोजी में वैज्ञानिक, भारत सरकार के सुदूर हिमालय के एक रिसर्च स्टेशन के लोहे के कंटेनर जैसी लैब में बैठ कर अंगीठी सेंकते हुए सोच रहा था। आजकल वो अपने विषय से हटकर भी सामाजिक विषयों पर घंटों विचार कर लेता था। मौसम अक़्सर ख़राब रहने और पूरे दिन में कुछ ही घंटे बाहर जा सकने वाले इस ख़राब मौसम के कारण उसे ऐसा करने का पर्याप्त समय मिलता था। महीनों का एकांतवास भी उसे वर्षों से भूल चुके छाया वृत्तियों के पुनर्संस्मरण की ओर भी ले जाता था।

उस रिसर्च यूनिट में कुल चार ही सदस्य थे जिसमें से दो वैज्ञानिक, एक सहायक और एक रसोइया था। ऐसे सुदूर हिमालयन स्टेशन पर जाने से बचने के लिए सीनियर वैज्ञानिक अक़्सर कुछ ना कुछ बहाने बनाकर इंकार कर देते थे सो ये ज़िम्मेदारी उनसे जूनियर लोगों पर ही आ जाती थी; उसमें भी अगर कोई शांत प्रकृति का हो तो वो सबकी नज़र में उपयुक्त भी होता है। जैसे कि कहावत भी है—सीधा पेड़ सबसे पहले काटे जाने के लिए चुना जाता है। बहरहाल डॉ. परमात्मा को इससे कोई शिकायत ना थी अगर किसीको शिकायत थी तो वो थी डॉ. मधु, जिन्होंने अभी नई जॉइनिंग थी, कुछ पुराने सहकर्मी उनके पहुँच-वाले रुत्बे, मंत्रालय में उनकी पहचान और ज़्यादा भाव ना पाने के कारण ख़फ़ा रहते थे। चापलूसी और झूठी प्रशंसा जैसे हथियार से उन लोगों ने डॉ. मधु की पोस्टिंग भी वहीं करा दी जहाँ डॉ. परमात्मा जा रहे थे।

विचारों एवं भिन्न परिवेशों से आने वाले ये दोनों एक दूसरे को मीटिंग के आलावा हाय-हैलो से ज़्यादा सहन नहीं कर पाते थे; अब उनके एक ही लैब में समय बिताने का ख़्याल से भी, डॉ. मधु परेशान हो जाती रही थी। फ़िलहाल तमाम कोशिशों के बाद भी वो निर्णय को बदलवाने में असमर्थ रहीं। नई नौकरी के प्रोबेशन में वो इंकार भी नहीं कर सकती थी। वर्तमान, नए समय में भी भारत जैसे देशों में महिला-समानता अभी सभी जगह समान रूप से सम्भव नहीं हो पायी है। इसके विपरीत डॉ. परमात्मा ग्रामीण परिवेश से आये उम्र और रैंक में सीनियर थे। ईश्वर जिनको अत्यंत प्रेम करता है उन्हें इस दुनिया में कुछ ज़्यादा संघर्ष और प्रेम की सम्भावना से हीन कर ही देता है। वैचारिक सम्यता की हीनता तो थी ही, साथ ही दोनों की विपरीत आदतों ने उनके मध्य ऑफ़िशियल आदेश निभाने के सिवा अन्य की संभावना को भी शून्य कर दिया था। वैसे भी पीएच.डी. के समय के दोस्त, डॉ. परमात्मा को नॉन रिएक्टिव कहते ही थे। हालाँकि उनके पुराने दोस्तों का विचार अलग ही था।

अब तो उनके प्रवास का एक महीना बस सफ़ेद निर्जन शून्य में बीत चला था। रिसर्च साइट मुख्य स्टेशन से 60 किलोमीटर दूर थी; जिसके मध्य हर 20 किलोमीटर पर एक सब-स्टेशन बनाया गया था। दस-दस दिन बिताते अब वो सबसे ऊपरी स्टेशन पर आ गये थे। उन्हें यहाँ सबसे ज़्यादा दिन रुकना था। शेष दो स्टेशन सामान आपूर्ति एवं आवागमन विश्राम हेतु बने थे। ऊपरी हिमालय की एक विषम चट्टान के ओट में पत्थर की नींव पर रखा एवं सीमेंट की पतली परत से ढँका, यह बहुत ठंडा हो जाता था। सदस्यों की कमी के कारण साइट की खुदाई और प्रतिकृतियों का संकलन दोनों उन्हें ही करना पड़ता था।

♦ ♦ ♦

आज मौसम कुछ अजीब था। कुछ दूर एक-आध दिख रहे शंकुधारी पेड़ मानो सफ़ेद चादर से ढक के मोटे खम्बे जैसे लग रहे थे। आँख से दिखने वाली सभी जगहों पर बर्फ़ ने पैठ बना ली थी। ठंड से सुन्न पड़ते हाथ-पैर और नीरस खान-पान जीवन को नरक के हाशिये पर बसे होने जैसे मनोभावों को प्रबल करते थे। अभी सुबह के 8 ही बजे होंगे, डॉ. परमात्मा बड़े-से कप में चाय लिए अंगीठी ताप ही रहे थे कि परिचारक ने जल्दी से एक रेडियो पर आये संदेश को सुनाया। जिसमें आज मौसम के ख़राब होने के साथ बाहर न जाने की भी चेतावनी थी। चाय अभी कुछ बाक़ी रही होगी, अचानक शीशे से बाहर नज़र गयी। परमात्मा ने तुरंत सारे आउटडोर्स बंद करने के लिए कहा। सायरन बजने लगे सारी खुली खिड़कियों को बंद कर अंगीठी की आग को ढँक कर तूफ़ान के गुज़र जाने का इंतज़ार करने लगे। पहला झटका गुज़रा होगा। यह प्लाव ज़्यादा तेज़ था उसने जनरेटर रूम से बिजली सप्लाई के साथ साथ ईंधन कक्ष को भी क्षतिग्रस्त कर दिया। जब तूफ़ान की तीव्रता कुछ कम हुई होगी, परिचायक ने आवाज़ दी, “खाने के समान का एक बड़ा संदूक टूटकर बिखर गया है।” जनरेटर का डीज़ल भी गिर के बह जाने के बाद एक कड़ा निर्णय लेते हुए दोनों ग़ैर वैज्ञानिक सदस्यों को निचले सब-स्टेशन जाने और सहायता लाने के लिए भेजना पड़ा। बाक़ी बचे दो लोग इस सब-यूनिट में अकेले रहने के बराबर थे। डॉ. मधु अपने भाग्य को कोसते हुए वहाँ से उठकर दूसरे तरफ़ चली गयी यह कहते हुए कि पता नहीं कौन सी क़िस्मत लेके आयी है वह। ‘इससे कहीं अच्छा होता मेरा यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर में चयन हुआ होता पर क्या करूँ आजकल हर जगह जुगाड़ से ही नौकरी है। योग्यता से कोई मतलब नहीं।’ इतनी पहुँच होने के बाद भी, उसका वहाँ न नियुक्त होना उसे खल रहा था। ये भुनभुनाहट डॉ. परमात्मा के कानों में पड़ी . . . यूनिवर्सिटी . . . इला नगर, हालाँकि वह वहीं से पढ़े-लिखे और पीएच.डी. पूरी की थी लेकिन जब से वह इस इंस्टिट्यूट में बतौर सांइटिस्ट नियुक्त हुआ वो धीरे-धीरे दूर होता चला गया। वैसे तो इस विश्वविद्यालय से पढ़ने वाला हर छात्र जीवन भर यहाँ के जुड़ाव को नहीं भूलता; ऐसा डॉ. परमात्मा के साथ भी था लेकिन परमात्मा के लिए सबसे प्यारे दिनों को जो उसने यहाँ बिताये, उसे भूल ही जाना सबसे अच्छा था।

आज इस तूफ़ानी समय में उसी का याद आ जाना, उसने सहसा 14 साल पीछे ले जाके ठीक वैसे ही पटक दिया वैसे तेज़ हवा कटी हुई पतंग को। अनंत विस्मित छायाचित्र ऐसे उसके मन में आने लगे जैसे बाहर बिन बुलाया मौसम था। सुबह से दोपहर हो चली थी, मौसम अभी ठीक ना हो पाया। कभी-कभी संकट भी दो विरोधाभासी मतों में भी संवाद शुरू कर ही देता है। परिस्थितियाँ जब दुरभ हों और ख़तरा अस्तित्व पर आन पड़े तो लोगों की सहनशीलता की सीमा का विस्तार हो ही जाता है। दोपहर में कुछ थोड़ा ही खाने को नसीब हो पाया जिसे तूफ़ान ने दया करके छोड़ दिया था। दोनों चुपचाप बैठे सहायता आने की उम्मीद लगाए समय काट रहे थे। दिन के 2 बजने को थे, मौसम थोड़ा साफ़ हुआ लेकिन अब भी बाहर जाने की हिम्मत न हुई। ठंड हवाएँ ऐसे टकराकर आवाज़ कर रही थी जैसे कोई जेट इंजन कान के पास से गुज़र रहा हो।

आज डॉ. परमात्मा के यादों का पिटारा को मधु ने अनजाने में खोल दिया था, उसने जब से यूनिवर्सिटी का नाम सुना उसके अंदर के तूफ़ान भी बाहर के तूफ़ान से तेज आवाज़ में उसे बैचैन करने लगा था। आज परमात्मा का चित्त अब बता रहा था कि उसके मनमाफ़िक अब वह नहीं चल पा रहा है, सैकड़ों जीबी के मेमोरी कार्ड उसके दिमाग़ में अपडेट होने लगे थे, आँखें प्रतिबिंब देख कुम्हलाने लग, कुछ खो जाने का दुख जैसे उभरने लगा हो। दुनिया के इस कोने में आया संकट भी ऐसा ही था। डॉ. मधु पहली ने ऑफ़िशियल तौर पर पूछा, “सर! इफ़ यू डोंट माइंड, कैन आई स्मोक?”

“यस मधु,” उत्तर परमात्मा ने दिया। मधु उसकी चिंता को कम न कर पा रही थी। बिना कारण उसने डॉ. परमात्मा से रखे खाने के पैकेट के बारे में पूछा, “सर! हैव यू चेक्ड दी प्रोसेस्ड फ़ूड मटेरियल्स?”

उत्तर में उसकी ओर से सिवाय येस के कुछ न था। आज वो पता नहीं क्यूँ डॉ. परमात्मा से बात करने की कोशिश कर रही थी। शायद उसे डर लग रहा होगा या शायद उसने उन्हें दुःखी देखा हो। ईश्वर ही जान सकता है कि प्रकृति और महिला आने वाले पल में कौन-सा निर्णय लेगी।

“आर यू ओके?” मधु ने पूछा। इस बार उत्तर न आया। अंगीठी की आग और तेज़ करते हुए थोड़ा ज़ोर से उसने फिर यही बात दोहराई लेकिन उत्तर न मिला। परमात्मा के अंदर और लैब यूनिट के बाहर दोनों ओर ज़बरदस्त तूफ़ान उमड़ रहे थे, बीच में दोनों थपेड़े सहते उसकी स्थिति चक्रवात में, किनारे पर कमज़ोर रस्सी से बँधी छोटी नाव जैसी थी जो कभी भी, किसी ओर गिर के टूट सकती थी। ग़नीमत कहो या दया बाहर का तूफ़ान उतरण की ओर हो गया था लेकिन अनदेखा आंतरिक दर्द बढ़ता जा रहा था। यादों का दर्द वैसे ही बढ़ रहा था जैसे बड़ी दुर्घटना में कोई बस कोमा में जाने वाला हो। सहसा वह उठकर दूसरी ओर चल दिया जिधर रोशनी कम जल रही थी। बाहर सूरज ढल रहा था, अँधेरा सफ़ेद बर्फ़ पर छा जाने को आतुर था। घबराहट में उसने खिड़की से बाहर देखा और आँखें बंद कर लीं। छुपके चाँद की आँख से दो मोती गिर गये, काश कोई दवा होती जो परमात्मा के इस दर्द हर सके।

जब दफ़न किये गये जज़्बात उभरते हैं तो उनकी तीव्रता किसी रेक्टर स्केल में नहीं मापी जा सकती। उसी से आहत-से, घबराये-से परमात्मा ने ड्रॉर से रम की बोतल और गिलास निकाल कर डॉ. मधु की ओर देखकर धीरे से बस पूछा, “क्या आप भी?”

मधु आँखें फाड़कर उसे देखने लगी। किसी ने आज तक परमात्मा को किसी भी व्यसन का सेवन करते हुए ना देखा और न ही सुना था। शराब तो बहुत दूर की बात थी; हालाँकि मधु के लिए यह सामान्य था फिर भी वह असहज होते हुए बोली, “यस! दीज़ वेदर कंडीशंस आल्सो मेड मी डिस्टर्ब्ड।”

रम के दो पैग के बाद परमात्मा की हिम्मत थोड़ी बढ़ी जैसा एक नए शराबी में देखा जा सकता है।

“टुडे आई ऐम फ़ीलिंग दैट इफ दिस इज़ लास्ट डे ऑफ़ माइ लाइफ़ देन व्हाट शुड आई डु?” अपने आप को एक चिंतक मानने वाला वह, उसने ऐसी भावना को पहले अनुभव नहीं किया था। पता नहीं उसे ऐसा क्यूँ लग रहा था। इस बात का मधु के पास भी कोई जवाब न था। रात अपने मध्य की ओर बढ़ती और काली होती जा रही थी। बर्फ़ से ढँके पहाड़ और स्प्रूस के पेड़ मानो ऐसे लग रहे थे कि कोई विशाल काली छाया वृत्तियों में समाये जा रही हो। इस रहस्यामयी शांत तूफ़ानी रात कुछ अजीब ही थी जैसे बड़े तूफ़ान के बाद होता है। शान्ति को चीरते हुए घाटी से झरने की आवाज़ आने लगी थी। परमात्मा के पैग भी रात के कालेपन के साथ बढ़ते गये। बाहर फिर से बर्फ़ के बुरादे झड़ने लगे मानो काली रात के बादलों ने भी उसका दर्द समझ लिया हो। उसके होंठ कुछ बुदबुदा रहे थे डॉ. मधु ने ध्यान से सुना, परमात्मा की संजीदगी और द्रविता इस क़द्र बढ़ गयी थी कि वो कभी रुआँसा होने लगता तो कभी गंभीर। पिछले 14 सालों में किसी ने उसे ऐसा नहीं देखा था। तभी वह थोड़ा धीरे-से कहने लगा, “काश मुझे पता लग जाता कि मेरी ज़िन्दगी कब ख़त्म होने वाली है तो वह वर्षों से अधूरी बात कह देता उसे।”

“किसे डॉ. परमात्मा!”

“हें . . . हें . . .,” जैसे अब उसकी चेतना आधी हो चुकी हो। ऐसे अर्धचेतन अवस्था में एक नाम डॉ. मधु ने स्पष्ट सुना—मैगनोलिया प्रकाश। जिस नाम को कहते-कहते वह अपने आँसुओं को रोक सकने में असमर्थ हो गया था।

वैसे भी ज़िन्दगी के दो अध्यायों में से बचपन का संघर्ष और दूसरा वही तो थी। उठकर लड़खड़ाते हुए अपनी रैक वाली अलमारी में रखे बैग से मुश्किल से ढूँढ़कर एक डायरी निकालते हुए डॉ. मधु से दूर हल्की रोशनी में बैठ गया। ज़िन्दगी का अकेलापन महसूस होने ही ना देने वाले डॉ. परमात्मा को जैसे उसी का साक्षत्कार हो रहा हो। कितना मुश्किल होता है अतीत से सामना! एक पैग के साथ वह डायरी को खोलने की हिम्मत कर पाया। उसका भविष्य कितना भी अच्छा हो अतीत से सामना उसके बस की बात न थी। मैगनोलिया के असंख्य चित्र कौंध रहे थे, हर दृश्य आज उभर-उभर के समाने चला आ रहा था। लैब की छत की ओर देखते हुए परमात्मा ने रुआँसा होकर कहा, “न जा मैगनो . . . मैगनो सुनो प्लीज़!”

मधु भागकर उस कोने में आई और देखा, वहाँ कोई नहीं था, किसे बुला रहे थे डॉ. परमात्मा! अब तक परमात्मा बेहोशी की हालत में थे, सो अंगीठी से बचाकर कम्बल उनके ऊपर ओढ़ाते हुए डॉ. मधु कहते हुए अपनी कुर्सी की ओर बढ़ी, “आई थिंक यू ड्रैंक बियांड दी लिमिट, सो प्लीज़ टेक रेस्ट।”

रात बहुत हो चुकी थी, हवाओं के थपेड़े अब भी सुनाई दे रहे थे। जैसे ही वह दूसरी कोने की तरफ़ मुड़ी, उसकी नज़र मेज पर पड़ी, अधखुली डायरी पर पड़ी जिसमें रखी एक तस्वीर बाहर निकली दिख रही थी। इटालियन मॉडल सरीखे खींची गयी इस तस्वीर ने डॉ. मधु को उसे उठाने के लिए मजबूर कर दिया। तस्वीर के नीच लिखा हुआ था—मैगनोलिया। कुछ अजीब सी हालत में वह इस तस्वीर को देख रही थी। लगभग 19-20 साल की एक लड़की की फोटो डॉ. परमात्मा जैसे नीरस व्यक्ति के डायरी में क्या कर रही थी? वह डॉ. परमात्मा के वर्तमान से भूतकाल की छवि बना कर सोचने लगी। इस तस्वीर को देखकर कोई भी ऐसा ही सोच सकता था। वास्तव में वर्षोंं पुरानी इस तस्वीर में भी मैगनोलिया वैसे ही जीवंत थी जैसे सुबह का खिला मैगनोलिया का फूल। लालिमा लिए गाल मानो पंखुड़िया हों, बड़े-बड़े नैन जैसे असंख्य पुष्प के असंख्य पुंकेसरों को आकर्षित करने वाले वर्तिकाग्रव की आभा प्रकट कर रहे हों। यौवन में पुलकित तन मानों वन में खिले मनमोहनी इस फूल की तरह लग रहा था। उसके नैन नक़्श, काले केश, अप्रतिम रचना उसे वास्तविक मानने से मधु को रोक रहे थे। एक स्त्री दूसरी स्त्री की इस हद तक की सुंदरता को मान्यता नहीं दे पाती फिर भी आज मधु विवश थी। उसने डायरी का वो पेज खोल ही दिया। ऐसी धृष्टता वह ज़िन्दगी में पहली बार कर रही थी। धृष्टता की परिभाषा में कुछ सामाजिक नैतिकता और नियम होते हैं, यहाँ कहाँ था समाज चारों ओर बर्फ़ ही बर्फ़, अगर कुछ थी तो नैतिकता उसे अब मधु ने पीछे छोड़ दिया था। असमंजस में उसने पढ़ना शुरू किया और वहीं कोने में बैठ गयी, पहले ही पेज में लिख था:

“कहने को ज़िन्दगी थी लम्बी बहुत
समझना चाहे तो ज़ाया हो गयी
उम्र गुज़ार दी की मुकम्मल होगी तक़दीर
ऐसे ही ज़ाया कर दी फ़ुज़ूल में ज़िन्दगी अपनी।

वक़्त चलता भी रहा मेरे लिए
मैं तुम्हें लेकर वहीं ठहरा रहा
लौट आने की थी आस
सो गुज़र गयी तमाम उम्र
कश्मकश न समझ पाया।”

ऐसे ही रहस्यों से भरी इस डायरी को पढ़ते हुए उसकी हालत अजीब-सी थी। कभी उसकी आँखें करुणा से भरतीं तो कभी आश्चर्य से और फिर कुछ जगह मुस्कान से। अब रात के 2 बजे थे, मधु की आँखों में जैसे नींद ही न थी; वो सुबह से पहले सब पढ़ लेना चाहती थी। उसकी स्थिति सागर में फँसे उस जहाज़ के कप्तान की तरह हो गयी थी जो रास्ता भटक जाने पर चहुँ ओर अथाह जल को बस पार कर लेना चाहता हो। डॉ. परमात्मा के जीवन के रहस्य उसे हर पल चौंका रहे थे। बचपन से उसके संघर्षों की झलक और कभी न हार मानने का जज़्बा उसे अच्छा लग रहा था। पढ़ने के लिए परमात्मा का संघर्ष भी आज मधु को नौंवी क्लास में पढ़े पाठ ‘स्ट्रगल फ़ॉर अन एजुकेशनल’ की याद दिला रहा था। उसका युवा जीवन और कॉलेज के जीवन-वृत्त ने मधु को कुछ पल हँसाया और फिर सैंकड़ों बार रुलाया। आज उसके लिए इन बातों को मानना कठिन हो रहा था कि कैसे कोई अनगिनत दुत्कार, अपमान और असफलता के बाद भी अपने में ईमानदारी और मासूम प्रेम को जीवीत रखे। मैगनोलिया से पहली बार मिलने की घटना को बयान करना मधु को भा रहा था जैसे कि उन बारिश के दिनों में जब सभी ग्रेजुएशन की काउंसलिंग के लाइन में खड़े थे। परमात्मा ने देखा लम्बी मर्सडीज़ में आयी परी सदृश्य मैगनोलिया, उसके पीछे उसके पापा के सेवादारों की टोली! वो मानों ये सोच में पड़ गया था कि वो कहाँ आ गया है। उसने लिखा था आज उसे कुछ ऐसा एहसास हो रहा था जो कुछ अनजाना भाव सा था। उस दिन उसे क्या पता था आने वाला पूरा जीवन अब उसी एक पल का दास बन के रह जायेगा। उसने लिखा था:

“तुम्हारे बारे में और कैसे लिखूँ
क्या लिख पाया है कोई मधुमालती का एहसास।”

इन कोमल एहसासों को पढ़कर डॉ. मधु भी मुस्कुरा दी। पता नहीं क्यूँ वह ख़ु्द, मैगनोलिया से न चाहते हुए भी, कुछ पल जुड़ती जा रही थी। परमात्मा का निष्काम प्रेम मानों आज दो नायिकाओं के हृदय में प्रेम भर रहा था। एक वो थी आज से वर्षों पहले परिस्थितिजन्य कारणों से उसे उसी निरमोही दुनिया में छोड़कर चली गयी थी जहाँ से वो परमात्मा आज तक न उबर पाया था। अगला पेज पलटते ही वह सात फटे पन्ने देख सोचने लगी क्या इन पन्नों में प्रेम का वर्णन था या मैगलिया के बिछड़ जाने का एहसास, जिसे वह कभी ख़ुद भी दुबारा नहीं पढ़ना चाहते हों। मधु के मन में हज़ार तर्क जन्म ले रहे थे। आज पहली बार वो किसी के निजी ज़िन्दगी की इन बातों की जानना चाहती थी। वह सोच ही रही थी की उसे फटे पन्नों के बाद चार पक्तियाँ दिखीं। जिसमें लिखा था:

“जितने भी क़दम चले तुम्हारे साथ
वही चले समुन्दर में
कौन समझ पायेगा, बिना डूबे
डूब जाने का एहसास।”

इन्हीं लाइनों को सुलझाते-सुलझाते भोर होने को आ गयी। कलाई घड़ी घुमाकर देखी तो साढ़े पाँच का समय था। बाहर मौसम फिर शांत था जैसे कुछ हुआ ही ना हो। सूरज के आने का संदेशा लिए लालिमा छाना शुरू हो गयी थी। मधु अंगीठी पर पानी गर्म करने का बरतन रखते हुए सोच रही थी क्या वो कभी जान पायेगी उन सात फटे पन्नों में क्या लिखा होगा। मैगनोलिया और डॉ. परमात्मा में क्या हुआ था, क्यूँ दोनों साथ नहीं हैं? क्या वह कभी पूछ पायेगी डॉ. परमात्मा से वो सब और क्या उसमें हिम्मत है उनसे ये बताने कि उसने डायरी चोरी से पढ़ी। तभी पीछे से कम्बल खींचने की आवाज़ आयी। जल्दी से मधु ने जाकर डायरी वैसे ही मेज पर रख दी मानो जैसे डायरी को किसी ने छुआ ही ना हो। उसने मैगनोलिया को ना कभी सुना हो और ना जाना हो।

— क्रमश:

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