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परितोषक-त्याग

 

जीवन निधि सुयश मेरा परितोषक
मन मंडित अभिमान हुआ जब
मोह जब जीवन में पनपा
नई कोंपलें पनपी जीवन में 
आस लिए नव प्रेमांकुर के 
फिर इच्छाएँ उम्मीद जगी
हर बार तेरे उन कटु वचनों ने 
धिक्कार किये दुत्कार दिये
तुमने रसपान विहीन किये
 
फिर रख अक्षुण्ण आस विशेषों की
ख़ुद को परिमार्जित हो अधिकार दिये
कुछ संचित निधि बिसार दिये
लो तुम पर परितोषक वार दिये
 
मन-अञ्जित लक्ष्य विधानों ने
सम्मुख हो कुछ अपमानों ने
मन किशोर हिय कोमल द्विज का
समिधा सम आहुति दिये
तब हमने तिलांजलि देकर ही 
सुयश परितोषक त्याग दिये 
हमने परितोषक त्याग दिये 
हमने परितोषक त्याग दिये। 
 
1. वर्षा वेदना
 
फिर नभ विरंची एक विलगित शय को
ताड़ित-दामिनी कर्कश-निनाद कर
फूट-फूट कर बरसा जब था 
हमने उन मेघों—मल्हार से
उनके राग उधार लिए
संग उन्हीं बूँदों सम टपकी 
मृदु जल टपकी कुछ खार लिए
हमने परितोषक त्याग दिये 
हमने परितोषक त्याग दिये 
 
कोई  खंजन  ख़्वाब ना आया
टपकी ओसें तब आँखों से भी
बहुत आस थी प्रेयसी तुम्हारे
मेरे बैरागी ख़्वाब हुए 
हमने परितोषक त्याग दिये 
हमने परितोषक त्याग दिये 
 
2. शीत वेदना
 
ऋतु शीत ने जब असर दिखाया
ओस-सुधा कुछ धुँध-कुहासा 
थर-थर काँप रहे थे मानस सब
गर्म दूध के प्याले लेकर 
नरम रजाई में बैठे सब
लाल-अंगीठी ताप रहे थे
तेरे लगे उष्ण वचनों से
कई रात जो पूस-माघ की
बिना रजाई काट दिये थे
हमने परितोषक त्याग दिये 
हमने परितोषक त्याग दिये 
 
3. बसंत वेदना
 
नये आस की नई कोंपलें
धरा-वरण हुई रंगी-रँगीली
हँसने लगी कली जब खुल के
हुआ गुलाबी हर वंचित मन
मलय तेज़ थी संगम तट पर
विचर रहे पक्षी नावों पर
मैं रेतों-सा सरक रहा था
उकरे पाँवों की उन अनुकृति से
आकर जो फिर लौट गये थे
सागर के यायावर नावों पर 
 
सुनहरे सपनों की आस दिये जो
अब मन-विरंची को ख़्वाब ना भाया 
हमने ख़ुद को उड़ती रेतों पर 
वेग-विहीन कर ढार दिये
हमने परितोषक त्याग दिये 
हमने परितोषक त्याग दिये 
 
4. ग्रीष्म वेदना
 
उष्ण दिवस अब रास आ रहे
गर्म हवाएँ तेज़ हुई हैं
जो तब लगती थी ‘लू’ जैसी
वही उष्ण अब शीतल लगती है 
उन्हीं हवाओं संग उड़ता हूँ 
मोहभंग, खंडित, दण्डित हो
पल-पल  अशेष होकर  बिखरा हूँ 
छोड़ आस-परितोष दिये सब
भार विहीन लघुत्तम कण 
मोह विहीन तृष्णा रस खंडित
गंगा की रेती में लेटे 
मोक्ष जीवित ही प्राप्त किये
हमने परितोषक त्याग दिये 
हमने परितोषक त्याग दिये॥

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