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मैगनोलिया प्रकाश – 02

 

उस घटना के अगले सुबह जब परमात्मा उठे तो उन्हें ज़्यादातर बातें याद ही नहीं थी वो बस ज़्यादा ड्रिंक करने से हुई असुविधा के लिए माफ़ी माँगते हुए मधु से कहा कल का तूफ़ान कुछ अजीब सा था। मधु शांत थी थोड़ा मुस्कराने की कोशिश के साथ सिर हिलाया मानो असंगत विचारों के साथ भी सहमति दे रही हो। पिछली रात डायरी में पढ़ी सारी घटनाएँ उसके स्मृति पटल पर अनेकों-अनेक बार गुज़र रही थी वो उन्हें रोक पाने में विफल हो जाती। इस निर्जन में वह किसी से कह भी न सकती, डॉ. परमात्मा से छुपाना है वो अलग। एक स्त्री के लिए यह और भी मुश्किल काम था। कुछ दिन ऐसे ही बीते अब वह एक कुशल कलाकार बनती जा रही थी। पिछले तूफ़ान के आये महीनों बीत चुके थें उस सेण्टर से काम भी पूरा हो चला था। अनजान बनके रहना अब डॉ. मधु को अनबन भी लगता रहता था। 

आज का मौसम ठीक था। दल ऊपरी स्टेशन से वापसी करने की तैयारी में था, सामान आदि पैक हो चुका था और इससे निचले स्टेशन तक ले जाने वाले भी आ गए थे। लौटते समय मधु ने मुड़कर उस रिसर्च स्टेशन को देखा जैसे उसने उससे मूक स्वीकृति और राज़ को राज़ रहने का वादा दिया हो। पहाड़ों का बीस किलोमीटर लम्बा पैदल सफ़र मुश्किल तो था ही और मधु के गुमसुम और बेपरवाह रवैये से चलना देख सामान ढोने वाले एक पहाड़ी ने कहा, “मैडम साब, सम्हाल के पाँव रखो रास्ता सँकरा है।”

यह असमंजस उसे रास्ते और ज़िन्दगी दोनों में गिरा सकता है। पहाड़ों से उतरते हुए बर्फ़ पर पड़ रही सूरज की रोशनी अद्भुत सफ़ेद आभा बना रही थी और आवाज़ करती हुई ठंडी हवाओं से सुखद अनुभूति हो रही थी। सामान लेकर उतर रहा दल कोई पहाड़ी गीत गुनगुना रहा था ‘अम्मा पुछदी सुन धीये मेरिये, दुबली इतनी कीन्या करि होइ हो’। मधु को पहाड़ी भाषा नहीं आती थी फिर भी यह गीत में वह सम्मोहित होती जा रही थी। पैदल चलते, गीत और हवाओं के तान से बहुत दिन के बाद आज मधु जैसे किसी के बात कर रही हो, आज प्रकृति ने उसकी मूक उलझनों को समझ लिया हो और विह्वल हो उठी। तीन बजते-बजते दल दूसरे सब स्टेशन पहुँच गया। शाम होने से पहले पहले सामान रख ठहरने की सारी व्यवस्थाएँ हो गईं। यहाँ सर्दी ऊपर के अपेक्षा कम थी। बाहर अंगीठी के चारों और इकट्ठा होकर चाय की चुस्की लेते हुए सुबह नीचे उतरने का प्लान बन रहा था। डॉ. परमात्मा ने मधु को शांत देखकर पूछा, “आपकी तबियत ठीक तो है?”

“यस डॉ. परमात्मा आई ऐम अब्सोल्युटली फ़ाइन,” मधु ने एक झूठी मुस्कान के साथ सपाट उत्तर। 

कभी-कभी छोटे-मोटे झूठ को भी सच मन लेना संबंधों को सहज रखता है। रात गहरी होने लगी थी मधु की उलझन बढ़ती जा रही थी। वो जब डॉ. परमात्मा की सहज, बेपरवाह मनोवृति को देखती उसके मन-मस्तिष्क में डायरी से चित्र कौंधने लगते। वो सैकड़ों बातें पूछना तो चाहती थी पर वह ऐसा नहीं कर सकती। जीवन में कभी डायरी न लिखने वाली मधु ने अपने शब्दों को रिसर्च कॉपी में लिखना शुरू कर दिया। शीर्षक लिखा—हाईड स्ट्रगल।

अस्सी के दशक के देश भारत को आज़ादी के इतने सालों बाद भी, सही मायनों में पूर्ण आज़ादी मिलनी अभी बाक़ी थी। गाँधी जी का ग्राम स्वराज विकास मॉडल ठुकरा दिया गया था। गाँव पिछड़ते चले जा रहे थे। विकास के केंद्र के रूप में कुछ शहरों बड़े-बड़े कल-कारखानों, आईआईटी जैसे बड़े शिक्षा केंद्र खोले जा रहे थे। भारत गाँवों का देश था और गाँव बर्बाद होते जा रहे थे अँग्रेज़ों से सीखी इस बेढंगी अर्थववस्था मॉडल ने ग़रीबी, बेरोज़गारी, सामाजिक विषमता को बढ़ा दिया था। गाँवों से पलायन, शहरों में जनसंख्या और मलिन बस्तियों की संख्या बढ़ रही थी। इस दौर में सामाजिक नैतिकता, समरसता का बहुत पतन हुआ। गाँवों में छोटे किसान मजबूरी में मज़दूर बनते जा रहे थे। ऐसे ही एक ब्राह्मण पुजारी से मज़दूर बन जाने वाले पिता की कहानी आज लिख रही थी मधु। 

बुंदेलखंड का बीहड़ कौन नहीं जानता, चम्बल नदी के भारी कटान से हज़ारों बीघे खेत अनुपजाऊ हो गए और ज़्यादातर घाटी में समा गए। ज़मीनों के बढ़ते विवादों ने सघर्ष को जन्म दिया। दस्यु आतंक के लिए सरनाम इसी इलाक़े के अति पिछड़े गाँव में सत्यवंत तिवारी के घर परमात्मा का जन्म हुआ। पिता की सारी ज़मीनें या तो चम्बल में समा गयीं या दस्यु आतंक की भेंट चढ़ गयीं। रहा-बचा आधा बीघा खेत और खपरैल का एक मकान ही उनकी पूरी सम्पत्ति बची थी। गाँव के बड़े ज़मीदारों के यहाँ कभी और ब्राह्मण भोजन में मिली धोती कपड़ा से कपड़े की व्यवस्था हो जाया करती। बड़ी मुश्किल जीवन-वृति में सत्यवंत ने स्वाभिमान और ईश्वर की आराधना नहीं छोड़ी। सुबह स्नान-ध्यान के बाद मंदिर और शाम को रामचरित का पाठ उनका नियत कर्म था। दोपहर को खेत का काम नहीं तो किसी का जनेऊ बनाते रहते। कभी-कभी तो दोनों वक़्त की रोटी भी नसीब न होती लेकिन अपनी माँ के प्यारे लल्ला के लिए माँ कुछ रोटी ज़रूर बचा के रखती। ठण्ड में पड़ोसियों के बच्चों के छूटे-छोटे कपड़े माँग कर, साफ़ करके परमात्मा के लिए, उन पर एक मोर का चित्र बना देती और परमात्मा उसे ख़ुशी से पहनता। गाँव से छोटी जाति के लोग धीरे-धीरे पलायन कर रहे थे। असाध्य ग़रीबी और बेगारी उन्हें ऐसा करने पर मजबूर कर दे रही थी। सत्यवंत तिवारी की हालत भी वैसे ही थी बस अंतर था कि वो ब्राह्मण थे। समाज में उच्च जाति से ताल्लुक़ उनके लिए मजबूरी भी बन जाता। वो पूजा-पाठ और अपनी खेती के सिवा कुछ कर नहीं सकते थे। इसी सामाजिक दबाव और बर्बरता के शिकार सत्यवंत का जीवन बहुत मुश्किल से चल पा रहा था। समय के साथ परमात्मा बड़ा होने लगा तीसरी पास माँ ने उसे घर पर वर्णमाला, अंकों का ज्ञान चूल्हे की राख को ज़मीं पर फैलाकर सीखना शुरू कर दिया। उसके पिता उसे रामचरित की दोहे सुनाते और याद कराते। गाँव में पढ़ने की कोई व्यवस्था हो नहीं पायी थी अब तक। स्कूल दो गाँव दूर था इसलिए बड़े लोग दस्यु भय तो छोटे जाति के लोग मजबूरी वश बच्चों को स्कूल नहीं भेजते। धन और खाने-पहनने की कमी थी वो अलग। अशिक्षा अज्ञान को जन्म देती है और अज्ञान सामाजिक अंधकार को। अब इन जैसे गाँवों की हालत ऐसे ही होती जा रही थी। माँ शिक्षा का महत्त्व पिता से ज़्यादा समझती थी। पाँच बरस के हो चले परमात्मा का नाम प्राथमिक स्कूल में लिखवाने के लिए वो हर संभव प्रयास करने लगी। इस गाँव के स्कूल में एक ही शिक्षक थे। पुराने ज़माने का स्कूल, बच्चे ज़मीं पर बैठ कर पढ़ाई करते थे। यहाँ भी नाम लिखवाने के लिए फ़ीस के दस रुपये की ज़रूरत थी। सत्यवंत के पास सिर्फ़ चार रुपये ही थे। जुलाई का महीना बीत गया था अब तक पैसे का जुगाड़ न हो पाया। थक-हार कर सत्यवंत मगरू सेठ से उधार माँगने चले गए। उत्तर में मिले कटु वचन उसे छलनी कर रहे थे—‘का करोगे पंडित मोडे को पढ़ाये के। ये बड़े लोग के चोचले हैं, कल से उसे दुकान पर काम में लगाय देव हमार यहाँ’। 

अब और कहीं से उसे उधार माँगने की हिम्मत न थी। थके-हारे घर लौटे सत्यवंत बहुत परेशान थे। पत्नी ने परेशानी बूझते हुए गहनों के नाम पर आख़िरी बचा एक चाँदी का कड़ा हाथ में रखते हुए कहा, “लल्ला पढ़-लिख के बड़ा अफ़सर बनिहै तव हमार खातिर फिर से सोने का बनवा देइ।” 

कड़े के गिरवी रखने से कुछ पैसे मिल गए। परमात्मा का एडमिशन स्कूल में मिल गया। सत्यवंत एक स्लेट और खड़िया, स्याही और दावत ख़रीद कर ले आया। स्कूल गाँव से दो किलोमीटर दूर था और स्कूल जाने वाले गाँव से चार-पाँच बच्चे ही थे। उनमें से तीन का एडमिशन इस साल नया था। माँ बहुत ख़ुश थी, उसे अपने लल्ला को ख़ूब पढ़ाना जो था। उसने अपने हाथों से यूरिया खाद की पुरानी बोरी काटकर एक बस्ता बनाया और उस पर मोर का सुन्दर-सा चित्र उकेर दिया। जीवन में परिस्थितियों ने जो काँटे बोये थे परमात्मा उन पर रोज़ नंगे पाँव मस्ती में चलता जा रहा था। सुबह-सुबह माँ के हाथ की अंगीठी पर सेंकी रोटी और पड़ोस से मुफ़्त में मिली छाछ से उसका नाश्ता हो जाता। स्कूल जाते हुए माँ दो रोटी प्याज़ जो रख देती कपड़े में लपेट कर, वो दोपहर का नाश्ता। 

स्कूल में सुबह की प्रार्थना से लेकर शाम की गिनती-पहाड़ा वाली प्रक्रिया में वह मन से निमित्त रहता। ज़मीं पर सब के साथ बैठ पढ़ाई करना फिर छुट्टियों में तालाब में नहाना उसे अच्छा लगने लगा। अखिलेश और मोहन उसके दो नए साथी थे; ऐसे ही दिन बीत रहे थे। आने वाला संकट छुपके आने वाला था। बेख़बर परमात्मा बचपन जिए जा रहा था। चौथी कक्षा के परीक्षा के दिनों में माँ की तबियत ख़राब होना शुरू हो गयी थी। गाँव के वैद्य जी कई बार उसे दाल, सब्ज़ियाँ और दूध भी खाने को बोलते थे। बेबस माँ के पास इनका इंतज़ाम न था। जो भी व्यवस्था हो पाती पहले लल्ला फिर पति के लिए खाने का इंतज़ाम करती। बच जाता सो खाती वरना बिन बताये रह जाती। माँ कमज़ोर होती जा रही थी। वक़्त आते-आते अब वह ज़्यादा बीमार और कमज़ोर हो गयी। पिता जी आधा बीघा बची ज़मीन भी गिरवी रख माँ को इलाज कराने शहर के डॉक्टर के पास ले जाने लगे। परमात्मा को अखिलेश के घर छोड़ गए। डॉक्टर के पास ले जाने में देर हो गयी। मर्ज़ अब बढ़कर तपेदिक की आख़िरी स्टेज पर पहुँच गया था। कुछ दिन के इलाज के बाद डॉक्टर ने जवाब दे दिया और दवाएँ देते हुए घर जाकर सेवा करने को कहा। दवायें बेअसर हो चुकी थीं। रही-बची दवाएँ भी अब काम न आ रहीं थीं। बीमार माँ, घर को देखकर परमात्मा के मनोभाव में दुःख भरता जा रहा था। स्कूल जाना छूट गया। माँ की सेवा में लगे पिता और पुत्र दिन से रात सेवा में लगे थे। प्रकृति को कुछ और ही मंज़ूर था आज तड़के सत्यवंत से कुछ कह के माँ ने परमात्मा को जगवाया। लड़खड़ाती ज़ुबान से लल्ला को फिर जीवन में कभी हार न मानाने और ख़ूब पढ़ने के लिए कहा। परमात्मा को दुखी देख उस दोनों असह्य पीड़ा से तड़प गए। “लल्ला अपना ध्यान रखना” और फिर भगवान कृष्ण की लगी फोटो के ओर देखने लगी। मानो कुछ सवाल पूछा हो। सुबह की पहली किरण के साथ माँ उसकी तरंतों से लिपट अनंत की ओर चली गयी थी। 

ग़रीबी जब इम्तिहान लेती है तो सामाजिक रिश्ते-नाते काम नहीं आते। बेटे को छाती से चिपकाये माँ की लाश असहनीय वेदना कह रही थी यह मूक क्रंदन सत्यवंत को असहनीय हो गया। वो फूट-फूट कर बहुत रोया। काश उसने तोड़ दी होती बेबुनियादी रूढ़ि, कर लिया होता कोई और काम-धंधा तो आज पत्नी जीवित होती। 

दोनों बहुत दुखी थे। कुछ दिन के अंतिम संस्कार प्रक्रिया बीतने के साथ पिता पुत्र के पास एक दूसरे के सिवा कुछ खोने को न था। बची-खुची सम्पति के नाम पर घर भी क्रिया-कर्म में धन के लिए मगरू सेठ के पास गिरवी गया था। 

एक महीने बाद आज अखिलेश के पिता उसके साथ घर आये। पाँचवीं की वार्षिक परीक्षा आ रही थी। दोस्त की परीक्षा न छूट जाये, उसने अपने पिता से कहा था। वो सत्यवंत को समझा कर परमात्मा को अपने घर ले आये ताकि वो परीक्षा दे सके। माँ का असमय चले जाना और परिस्थितियों के कठोर कुठाराघात सहता छोटा बालक, अकेला गुमसुम रहने लगा था। अच्छा हुआ अखिलेश के पिता जी उसे अपने घर ले आये। परमात्मा की परीक्षा जैसे-तैसे ख़त्म हो गयी। अब वह थोड़ा सा सम्हलने लगा था। आगे की पढ़ाई के लिए आस-पास कोई स्कूल नहीं थे। जो एक सरकारी स्कूल था भी वो बीस किलोमीटर दूर था। अखिलेश अब शहर में नानी के घर रहकर पढ़ने जाने वाला था। नियति जब परीक्षा लेती है तो सिवाय साहस और सहनशीलता के कुछ काम न आता है। परमात्मा की आगे की पढ़ाई का कोई और रास्ता न सूझ रहा था। अपनी पत्नी से किये वादे और बेटे का भविष्य उसे बार-बार याद आते रहते। अब रखने को कुछ न था। वह मगरू सेठ के पास गिरवी रखी ज़मीन को बेचने का सौदा करने गया लेकिन उसने गिरवी में दिए गए पैसे को ही ज़्यादा बताते हुए सेत में ही ज़मीन की रजिस्ट्री कर क़र्ज़ मुक्त हो जाने को कहा। मगरू सेठ के गिरवी रखे खेत को ख़रीदने की हिम्मत और किसी में न थी। थके-हारे सत्यवंत घर बाहर चारपाई कर लेते परमात्मा को उसकी माँ का वादा बता रहे थे। 

रुआँसी आँखें और बेटे को सीने से लगाए आज सत्यवंत ने सामाजिक रूढ़ि तोड़ पत्नी से किया वादा निभाने के लिए गाँव छोड़ कर जाने और मेहनत मज़दूरी का निर्णय ले लिया। अफ़सोस था तो बस इतना कि ये निर्णय लेने में देर कर दी थी। सुबह की पहली किरण के साथ उन्होंने घर में सम्पति के नाम पर बचे पुराने संदूक जिसमें कुछ कपड़े, एक पुरानी फोटो और बरतन रख, घर में ताला लगा, चाबी मगरू सेठ के दीवान को देते हुए कहा—गिरवी घर की चाबी है। एक दिन वो उसे ज़रूर छुड़ा लेगा। घर में उसकी पत्नी की यादें जो थीं। उसे पता नहीं था अब वो किधर जायेगा? क्या करेगा? सुबह की पहली किरण के साथ उसने भी गाँव छोड़ दिया। 

ईश्वर सर्वदा सत्य है, संसार में मृत्यु अटल है लेकिन दर्द मृत्यु से बड़ा है और अटल भी है। सबके हिस्से में आता है कभी भी, कहीं भी; कम या ज़्यादा और मृत्यु भी इसके बिना नहीं होती। पढ़ाई और बच्चे के खाने के जुगाड़ में एक पिता जीत गया, ब्राह्मण होने की लज्जा हार गयी थी। झूठा दम्भ उस रास्ते पर बिछ गया था जिसपर पाँव धरे वो दोनों गाँव छोड़ रहे थे। माँ के बनाये बोरिये वाले बस्ते, जिस पर माँ के हाथों से बना मोर का चित्र था, आज परमात्मा के साथ ही था। मानो माँ और उसके लल्ला को पढ़ाने की लालसा, दोनों साथ-साथ चल रहीं थीं। दोपहर होने वाली थी दोनों पैदल चलते-चलते थक भी गए थे। एक आम के बग़ीचे में कुएँ पर पानी पीते हुए उसे जानकारी मिली कि इसके मालिक, जो बड़े आदमी है ठाकुर मानवीर बहादुर। उसने भी सुना था कभी; वो बड़े नेकदिल हैं। आज उसने काम माँगने उन्हीं की हवेली जाने का सोचा। ठाकुर साहब के पास खेतबाड़ी, बग़ीचे, दो तालाब, एक डीज़ल वितरण का लाइसेंसी ठीका था। थके-हारे हवेली के गेट पर पहुँचे पिता और बेटे को कोई अंदर न जाने दिया गया। सुबह से शाम हो चली थी। परमात्मा भूख से व्याकुल हो रहा था। ठाकुर साहब ने जीप से गेट के अंदर आते वक़्त उन दोनों को गेट पर बैठे देखा। कुछ देर बाद अंदर से नौकर बुलाने आया। सब कुछ जान लेने के बाद ठाकुर साहब ने दया दिखाते हुए उसे बग़ीचे के फ़ॉर्म हाउस की देखभाल और गायों के दूध निकालने का काम सौंपते हुए तीस रुपये मासिक और रहने खाने की व्यवस्था देने की बात कह कर चले गए। 

फ़ॉर्म हाउस थोड़ी ही दूर था। आज से वही उनका नया ठिकाना बन गया। पिता जी भोर में उठ कर गायों के चारे का प्रबंध करते गायें जब तक चारा खातीं, वो स्नान-ध्यान कर लेते, फिर गायों का दूध तड़के सुबह निकाल कर ठाकुर साहब के हवेली पहुँचा आते। फिर दोपहर के खाने का प्रबंध करते, बेटे को जगाते, तब तक खेत में मज़दूरों के आने का समय हो जाता। उनकी हाज़िरी और काम देखना ऐसे ही दिन बीतने लगे। इस साल बेटे की पढ़ाई का कोई इंतज़ाम न हो पाया। पास में कोई स्कूल न होने के कारण उसे अगले साल भी ऐसे ही पिता जी के साथ उनके काम में हाथ बटाते बीत गया। बेटे के बोरिये के बस्ते पर बना मोर उन्हें पत्नी से किये गए वादे की याद दिलाता रहता था। 

डेढ़ वर्ष बीत गया था ठण्ड का मौसम उतर पर था, अहाते में पुआल पर बिछी दरी पर लेटे हुए सत्यवंत कुछ सोच रहे थे फिर अचानक उठ के संदूक में आज तक के कमाए पैसे गिनने लगे और गिनकर रखते हुए परमात्मा से पूछा, “साइकिल चला लोगे?” उसे तो नहीं आता चलाना। सुबह एक पहर की छुट्टी लेकर सत्यवंत बाज़ार से एक पुरानी साइकिल ले आये। परमात्मा को देकर कहा, “छह महीने है सीख लो। रोज़ तीस किलोमीटर चलाना होगा इसे।” परमात्मा के पूछे जाने पर उन्होंने बताया, “मैंने पता किया है इस क्षेत्र का एकमात्र सरकारी इण्टर कॉलेज वहाँ से पंद्रह किलोमीटर दूर है।” 

यह बात सुन परमात्मा के चेहरे पर मुस्कान आ गयी। माँ के जाने के बाद आज वह पहली बार मुस्कुरा रहा था मानो पिंजरे में बंद किसी पक्षी को खुला आसमान मिल गया हो।
 

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