मैं काश! अगर तितली होती
काव्य साहित्य | कविता शार्दुला नोगाजा (झा)3 May 2012
मैं काश! अगर तितली होती
नभ में उड़ती, गुल पे सोती।
नवजात मृदुल पंखुड़ियों का
पहला-पहला क्रन्दन सुनती
अंकुर के फूट निकलने पर
गर्वीला भू-स्पंदन सुनती।
हो शांत, दोपहरी काँटों की
पीड़ा सुन हृदय बिंधाती मैं
नव प्रेमी-युगल की बातें सुन
उनके ऊपर मँडराती मैं।
शर्मा महकी शेफाली का
रत-जगा कर दर्शन करती
और झरते सुर्ख़ गुलाबों का
गीता पढ़ अभिनन्दन करती।
प्रथम रश्मि के आने से
पहले झट ओस पियाला पी
मैं अनजानी बन कह देती
थी रात ने कुछ कम मदिरा दी।
गर कोई गुल इठलाता तो
ठेंगा उसको दिखलाती मैं
कभी उपवन छोड़ पतंगों की
डोरें थामे उड़ जाती मैं।
तेरे सुमन सरीखे छ्न्दों का
मधु पी सुध-बुध खो जाती मैं
फिर शाम ढले यूँ लिपट-चिपट
उन्हीं छ्न्दों पे सो जाती मैं।
मैं काश! अगर तितली होती!
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